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Monday, January 17, 2011

ये बचकानी सोच

छोड़ ये बचकानी सोच ,
कुछ नया रच - जो अलग
सा लगे - ज़माने को .
सुनाना बंद कर अब -
तेरे मेरे पुराने फसाने को .

ये फ़िल्मी तारिकाओं के किस्से ,
तेरे मेरे जीवन के कहाँ हैं हिस्से
रंगीन तितली से - बेहतर है
घर की दीवार की मकड़ी -
कम के कम घर के ख्वाब तो बुनती है .
खाने को तेरे दुश्मन -बन गए
कीट-पतंगों को चुनती है .

इन सरमायेदारों के अलावों की आग
घर तो जला देगी लेकिन -
तेरे चुलेह तो क्या -घर के दिए भी
नहीं जला सकती .
ये तेरे किसी काम नहीं आ सकती .

इन सरकारी भांडों से -बस संसद में
ढोल के साथ भांगड़ा करवालो -
अमरसिंह हो तो -घर बुलवा के
नचवा लो -ये क्या हरेंगे तेरी पीर
क्या बदलेंगे तेरी मेरी तकदीर .

खेल नहीं है जीवन-और
दर्शक नहीं हैं - हम
कोई भी जीत जाए -क्या फर्क पड़ता है -
खेलने वाले -घर भर रहें हैं -
तुझे मुझे क्या निहाल कर रहें हैं .

अरे जाग जा प्यारे -ये सुबह की पुरवाई
तुझे यूँ ही थपकियाँ देकर सुलायेगी ही ,
पर बहूत सो चुका -सपनों के पीछे मत भाग
सपनो से देश दुनिया घर नहीं चलते ,
टूट जाएँ तो उम्र निकल जाएगी
आँख मलते-मलते .

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