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Tuesday, May 31, 2011

क्षणिकाएं

ये दुनिया -
पेट्रोल और
मिटटी के तेल से -
नहीं चलती.
आपसी प्रेम और मेल -
से चलती है यार .


रफ्ता रफ्ता टुकड़ों में बंट गया आइना-ए-इन्सां
कांच की किरंचों को - होशियारी से उठाया जाए .

उँगलियाँ घायल ना कहीं हो जाएँ -उठा
ध्यान से- शीशाए दिल मेरा ही तो है .

बड़ा बेगाना सा लगता है - इंडिया-ओ -हिन्दुस्तां यारो,
आने वाले हरेक मेहमाँ को-अब भारत से मिलाया जाए.

चाँद तारे - रौशनी के कंदील
विलुप्त हो जाएँ - आस्मां
में ही कहीं खो जाएँ -आँखें
चुंधिया जाए - दुनिया की .
डूबे हुए सूरज को - चलो
सागर से निकाला लाए .

डगमगाते - लड़खड़ाते हुए
क़दमों से नहीं चलता -
आओ इस देश को -
अपने हाथों में संभाला जाए .

यहाँ हिन्दू भी हैं - मुसल्मा भी क्या कहूं  ,
फकत इंसान हूँ - अब मैं कहाँ जाके रहूँ . 

सीधी सच्ची -नहीं कहानी
बात करो ना -तुम नादानी
हम चीनी ना हैं -जापानी
हम सब की है - एक जुबानी ,
हम हैं प्यारे हिन्दुस्तानी .
दूध का धुला अब यहाँ कोई नहीं 
चमकते चाँद में भी तो दाग है  - और
प्रचंड सूरज में तो हरदम जलती आग है .
देख सकते नहीं टकटकी लगा के जिसे
ये सचमुच धधकती आग का गोला है-पर 
ये चमकता सूरज - बेदाग बहूत भोला है .


 सुलझते तीर से तलवार से-
नफ़रत से रारों से .
ख़त्म हो जाते ये झगडे -कभी के
उचक ना झांकती आँखें  - कभी
इन रोज़ने-दीवारों से .
जब सब को आजमाया है -
तो इसको भी अजमा लो.
ये चूरन प्रेम रस का है -इसे
तुम फांक लो - खा लो .
बरसात में चिंगारी सुलगती नहीं -
लकड़ियाँ गीली  हैं -और चूलाह भी
अभी सुखा कहाँ  है.
जुगनू रौशनी का पर्याय नहीं है -
मेरी बात मान हर घर में -एक
माटी का चिराग जला के तो देख .
क्या पता था -की इतना उलझ जाऊँगा.
ऐसे तो उलझी ना थी ये जिन्दगी -
किसी को कैसे अब -मैं बताऊंगा .
इतनी आसानी से कैसे सुलझ जाऊँगा.










 




 

Monday, May 30, 2011

ये हम क्यूं बात करते-करते चिल्लाते हैं

ये हम क्यूं बात करते-करते
चिल्लाते हैं - एक दुसरे से
जलते और खार खाते हैं .

या एक दूसरे के कहे -व
अनकहे जज्बात - हमारी
समझ में आजकल नहीं आते हैं .

पता नहीं अंनाज की जगह -
आजकल रसोई घर में -
हम क्या पकाते - खाते हैं.

कबूतरों को हम -
बाज से क्यों लड़ाते हैं.
जामा मस्जिद से -अब उन्हें
क्यों नहीं उड़ाते है

या कबूतरों को पालना -
शौक नहीं रहा आजकल .
अब तो हम बे पर की -
हर रोज हांकते -उड़ाते हैं

प्रेम -प्यार की बात तो बस
रोटी सब्जी की सी बात है
क्या इनसे हम कभी उब पाते हैं.
इस प्यार के चलन को - हम
और आगे क्यों नहीं बढ़ाते हैं .






Sunday, May 29, 2011

धर्म कुछ ऐसा चलाया जाए

सारी दुनिया में - यार धर्म कुछ ऐसा चलाया जाए .
बाकी सब छोड -पहले इंसानको इंसान बनाया जाए . 

रफ्ता रफ्ता टुकड़ों में बंट गया आइना-ए-इन्सां
कांच की किरंचों को - होशियारी से उठाया जाए .

टूटते जुड़ते - बिखर जाते हैं जाने क्यों लोग .
भला किस शय से अब इनको मिलाया जाए .

बड़ा बेगाना सा लगता है - इंडिया-ओ -हिन्दुस्तां यारो
आने वाले हरेक मेहमाँ को- अब भारत से मिलाया जाए   

Thursday, May 26, 2011

रुका मत रह - तट पर

रुका मत रह - तट पर 

तूफ़ानों के मिजाज -
चाहे कितना सवाली हैं 
तेरे हाथ पतवार तो है 
धाराओं के हाथ तो 
आज भी खाली हैं .

रात मुरझाई हुई सी

रात मुरझाई हुई सी , दिन दहकते अंगार लिए,
जिन्दगी बेवफा सी, कभी बहूत सा प्यार लिए .
यूँ ही कट जाता है जीवन का सफ़र - बस यारो
कारवां रुकता नहीं , मुसाफिर ही ठहर जाते हैं.

ऊँचाइयों पर पहुँच - इंसान

ऊँचाइयों पर पहुँच - इंसान
एकदम अकेला रह जाता है -अपनों
से बहूत दूर -जहाँ दुःख -सुख
खुद ही सहना पड़ता है -जब
अकेले रहना पड़ता है .

पर वह अकेला नहीं होता - संग
में होते हैं -उसकी आँखों में
असंख्य रंग-बिरंगे सपने .
उन्ही में -जागना सोना पड़ता है -
सपनों के लिए - सपनो का
होना पड़ता है .

 


मन में भ्रम पाले गए

मन  में भ्रम पाले गए 
ये कबूतर - बाज से लडाऊंगा,
हम देश दुनिया घर से नहीं -
दिल से भी निकाले गए.

दर्द काँटों के नहीं -शुलों के
नहीं- दिल के आर पार -
हमारे अपनों के तीखे -भाले गए .

खेल में मात ही नहीं थी-केवल 
हमारे हाथों से -हमारे पाले गए .
खेल खेल में हम -
इस खेल से निकाले गए .

हाथ कुछ भी नहीं था-
मुंह के निवाले गए .
इस कदर हम कैसे कैसे -
उलटे सीधे सांचों में ढाले गए.

मोम के ढेर सा जिस्म गलत गया.

मोम  के ढेर सा 
जिस्म गलत गया.
जिन्दगी ठंडी बरफ थी-
नंगे पाँव दूर तक चलता गया .

अलावों की रौशनी -
भ्रम के प्रेत सी 
पास -दूर आती जाती रही .
समय की गाय -उम्र की घास 
निर्बाध गति से -खाती रही .

अकड़ती हड्डियों से - मांस
की परत प्याज के छिलकों सी
उतरती गयी - जाती रही .

किनारे की मिटटी - 
उफनती नदी की धारा -
भरभरा कर - गिराती रही .

चेहरे की लकीरें - और ज्यादा 
गहराती गयी - जिन्दगी दूर 
होती गयी -मौत पास आती गयी .

इन मामूली पटाखों से

इन मामूली पटाखों से - तो
पेड़ पर बैठी नन्ही सी -
चिड़िया भी - नहीं उडती .

ये आवाज हिन्दुस्तानी -
अवाम को - क्या दहलाएगी .
इन्हें सुनकर तो नर्सरी के 
बच्चे को भी हंसी आएगी.

ऐसे करोड़ों - बारूदी पटाखे तो 
हम एक ही दिन में - निपटा लेते है
अरे यार दिवाली- और वर्ल्डकप
जीतने के जश्न में ही चला लेते हैं .

मुंह में जुबान पान चबाने -
और खाना खाने के लिए-ही
तो नहीं है ना -कुछ ज्यादा 
परेशानी है -तो मुंह से कह ना .

मच्छरदानी में घूसकर- क्यों 
कान के पास भिनभिन्नाता है .
रात के अँधेरे में नकाब  -
बदल बदल कर क्यों आता है
दिन के उजाले में मिलने-
बात करने में क्यों शर्म खाता है .

ये चंद परजीवी मच्छर इस -
हाथी जैसे शरीर का -कितना
खून पी जायेंगे -करोड़ों पीढियां
फ़ना हो जाएँगी -ये क्या डेंगूं
मलेरिया फैलायेंगे - गर
डी डी टी छिड़क दी तो -
बेमौत वैसे ही मारे जायेंगे .

Wednesday, May 25, 2011

तुम और मैं - हमेशा साथ साथ

तुम और मैं - हमेशा
साथ साथ - एक दूजे के
हाथों में हाथ .

क्या डरना इस या उस
दुनिया से जब दोनों जहाँ
मेरे लिए -मेरे साथ .

सच मेरे मान - सम्मान
का रखा पूरा ध्यान .
मैं अणु - तू सर्वव्यापत
करुणा निधान .

निष्ठुर नहीं - दयावान
किंचित नहीं - शानो गुमान
तेरे आधीन सारा जहान.




Saturday, May 21, 2011

जजमेंट डे मेरा क्या कर लेगा .

आपको नहीं लगता की -
काफी लेट आया है.
इस 'न्याय के दिन' ने - हमे
कितना इंतजार करवाया है

कब तक पेरोल पर -
बार बार -अंदर बाहर आयें 
क्यों ना रिहाई हो - हमेशा की 
हम अपने घर जाए .

चलो क्रिस्तानी भी है तो क्या -
न्याय ही तो होगा - हमे क्या चिंता
रोयेंगे अमेरिका - फ्रांस , या
चीनी -पाकिस्तानी -
हम तो सदा से ही शोषित हैं-
हमारा नाम -हैं हिन्दुस्तानी .

जिसने किया है -वो
हरामखोर -भर लेगा
ये भूतनी का - जजमेंट डे
मेरा क्या कर लेगा  .

Thursday, May 19, 2011

कहना भी जुर्म है मगर सहना भी जुर्म है

कहना भी जुर्म है मगर सहना भी जुर्म है
खंजर के निशाँ- अब किसे जाके दिखाइए .

जब बात चल पड़ी है तो फिर पूछ किसी से
तू चुप रहे तो ठीक -ये सबको  बताइए .

आतंक का मुलाहिजा कर लीजिये तुम भी
सर एक है - तलवार दो अब किस से छिपाइए .

आगाज कुछ नहीं फिर - अंजाम  क्या होगा 
नौटंकियों में तालियाँ  खुल कर बजाइए .
(यशोमद)

Wednesday, May 18, 2011

किसी से क्या गिला

किसी से क्या गिला
कौन से हमारे हिसाब ही साफ़ हैं
की दूसरों से सफाई मांगे .
हंगामे हमने इतने बो दिए
की तन्हाई हम क्या मांगे.

एक मेहमान कैसे  -पूरे महीने के
बजट को गड़बड़ा जाता है- आखिर
वो तुम्हारा कितना राशन खा जाता है .
तुम्हारे बनावटी स्नेह को -कभी सोचा है
किस कदर झुटला जाता है .

हम बात करते हैं -पूरे हिंदुस्तान की
नहीं पूरी दुनिया-जहान की .
कभी सोचा है - बिजली तुम्हारे घर
तक लाने में कितना खर्चा आता है .

सीवर पानी लाने में -सरकार की
सांस फूल जाती है - दम निकल जाता है .
आखिर तुम्हारे बिल देने से - उसका
कितना सा गड्ढा भरता होगा -
या सोचते हो काम चल जाता है .

पर हमे तो अपनी बात मनवाने के
के लिए- शौर मचाना - रेल पटरी  और सड़क पर
धरना देना ज्यादा भाता है -जानते भी
हो इनको बनाने -चलने में कितना खर्चा आता है .
सरकार कोई व्यापारी नहीं है -
तुमसे वसूल कर - तुम्हे ही तो दिया जाता है .

घर में श्रीमती -बच्चों की मांग
मानते मानते - आप का मिजाज सातवें
आसमान पर क्यों चला जाता है - फिर
ये तो देश है प्यारे - हमारा मनमोहन
भीख मांगने यूँ ही तो रोज रोज
अमेरिका के चक्कर नहीं लगाता है .
तुम देश क्या  चलाओगे - तुमसे तो
अपना घर ही संभाला नहीं जाता है .

दूसरों से हिसाब मांगना -आसान है
खुद भी जवाब देने की आदत डालो
जरा अपने अन्दर झाँक के देखो -तब
दुसरे की गिरेबान में हाथ डालो .

यूँ ही बात बात पर -तलवार भांजने से बचो -
पहले अपना घर गली मौहल्ला तो संभालो 
तब तो मुमकिन है देश नहीं -शायद
पूरी दुनिया को बचा लो .

पहले इस पतझर को रो लें .



सागर यूँ मायूस खड़ा है 
चलो नाव की रस्सी खोलें
तेरी जीत हार पक्की है - आ
मिलकर जय अपनी बोलें.

फिर उड़ान को तत्पर सपने
पहले अपने पर को तोलें
जीवन अपनी चाल चलेगा
चलो काल पर धावा बोलें .

चल अब रैन हुई -अपने घर
ये तो वतन नहीं है अपना
और किसी की आंख है प्यारे
तेरी नींद - ना तेरा सपना.

मेरा घर तो हैं माटी का
सुंदर तेरा महल बड़ा है
अँधियारा ओटेगा दीपक-
चाहे सूरज द्वार खड़ा है.

जीवन के अवसाद बहूत हैं 
हंसी ख़ुशी चल इसको ढो लें .
फिर बसंत की बात करेंगे  -
पहले इस पतझर को रो लें .

Tuesday, May 17, 2011

'' मेघ ''



तपती दोपहर में -
झुलसता तन बदन
नंगे पाँव - रेत पर
चक्कर लगाती मन
की उड़iन - कितना बेबस
मैला सा - निरीह आसमान .

बाट देखती -मेघों की पंक्तियाँ
इजाजत हो तो - बरस जाएँ.
इतने भारी  जल के,
बोझ को कितनी देर -
कहाँ तक उठाएं.

ना जाने कैसे होंगे मेघ -
जो बरसेंगे मेरे घर-आंगन में
जब -तब उन्हें हम बुलाएँगे
यकीन है -मेरे बुलाने पर वो
जरूर आयेंगे .

कितना मुश्किल सा
सफ़र मन मार कर -तय
करते होंगे मेघ.
समंदर में जल भरते होंगे मेघ -
अब वो घर से निकलते होंगे मेघ.

मेरे घर तक    
बड़े अलसाये अंदाज में
चलते होंगे मेघ .
रास्ते के घर -खेत खलियान
में काम करते लोग -
मेरे सौभाग्य पर जलते होंगे.                      



Monday, May 16, 2011

अकाल

ऊपर ऊपर से मत सहला ,
पल , कल , साल महीने से
मत बहला -
काल तेरे मेरे भीतर है -
उससे मिल उसे ढूँढने बाहर मत जा

काल जो हमें यहाँ लाया - जिसने
हमें जीवन दिया -इसे चलाया
और कल काल ही ले जायेगा भी -
कहाँ से हम आये -कहाँ चले जायेंगे -
हम नहीं जानते - काल जानता है .

काले पानी की सजा काटने - मर्जी
से कौन आता है - ये दुनिया नरक है
यहाँ सुख कौन पाता है.
अपने अपने पापों के अनुसार - सजा
भोगने हर कोई आता है .

कल काल है - आज की सोच
आज अ-काल है इसमें रह -
यही श्रेष्ठ है -
कल की सोचेगा तो भटक जाएगा .
आज तक कभी नहीं पहूंचेगा-
कल में ही अटक जाएगा .

रार मत ठान - उसे दुश्मन मत मान
काल तो न किसी का दोस्त है- न
दुश्मन - वो तो बस न्यायकर्ता है-
जिसकी जैसे करनी है -वैसी भरता है .

क्यों मोह पालता है - जिसे छोड़ कर जाना है
दिल उसमे क्यों डालता है - अपनी वापिसी
मुश्किल क्यों बनाता है- अरे यहाँ तो जो आता
है -वो वापिस जाता है -
यही सच है - यही शाश्वत .

कहीं देर न हो जाये .

कहीं देर न हो जाये .
कूंच के नगाड़े बजने लगे
मेरे वापिसी के -विमान
सजने लगें .

बस एक बार -मुझे
अपने पास बुला ले
अपने आँचल में -
सबकी नजर बचा के छुपा ले .

शायद -यमके यान
मुझे अपने पास बुला लें
इससे पहले -
एक बार -प्रेम की
महफिल फिर से सजा लें
तू ना आ सके -तो मुझको
ही -अपने पास बुला ले .

मैं अनश्वर नहीं हूँ -क्या पानी
का बुलबुला -रेत का पहाड़
अपनी शाश्वतता पर अभिमान
कर सकता है -इतना लघु है जीवन
कभी भी मर सकता है .

आपकी देरी किसी का
जीवन ले सकती है
फिर ढूँढ़ते रह जाओगे
हम भी तो तेरे प्रिय हैं
हमें फिर कहाँ देखोगे -
कहाँ पाओगे .

Sunday, May 15, 2011

उठा अपने हाथों में जय की पताका

उठा अपने हाथों में
जय की पताका-
विजय करले दसों दिशा .
देखेंगे -सोचेंगे से बाहर आ
हम करेंगे - और
दुनिया को करके दिखा .

पतन अधोपतन - सिर्फ
शब्द रह जाएँ -किताबों से
ना कभी बाहर आयें -ऐसा
कुछ जो हम कर जाए - दुनिया
देखे फिर हिन्दुस्तानियों का
अजब गजब जलवा .

जीतेगा तू - हर बाजी जरुर ,
हिम्मत कर हथियार उठा .
बहूत रखा पर्दों में-
छिपा कर -खुद को
एक बार तो ज़माने के
खुल कर सामने आ .

जी हाँ मैं खरीदार हूँ

जी हाँ मैं खरीदार हूँ  -
आँखों में स्नेह का ,
इकरार का इसरार का -
बस इंसानी प्रेम-प्यार का .

किसी भी कीमत  -प्रतिदान में.
खरीद लेता हूँ - जो जैसा मिले
मोल- बेमोल अनमोल -
नहीं रखता कोई मायने .

डब्बे का रूप रंग नहीं देखता
मोल - कीमत इंसान की लगाता हूँ -
इसलिए अक्सर ठगा हुआ कहलाता हूँ .  

मैं व्यापार - दिमाग से नहीं
दिल से करता हूँ -इसलिए
अक्सर घाटा उठाता हूँ .

मैं जहाँ भी आता - जाता हूँ .
ये मुहावरा होता जा रहा हैं -
वो देखो - आदमी नहीं इंसान
का खरीदार चला आ रहा है.

Saturday, May 14, 2011

पहले नाना - फिर माताजी

पहले नाना - फिर माताजी
फिर नातीजी अब बेटाजी .
कब तक हम आपा ना खोएं-
फूल बिछाये बहूत राह में -
आओ अब मिल काँटें बोयें.

चल अकेला ही चल

चल अकेला ही चल -
ना कोई साथ दे तो
आगे बढ़ के ना हाथ दे तो -

चाँद -सूरज , दिन और रात
कहाँ चलते हैं साथ साथ .
सितारों का क्या जो एक साथ
चलते हैं - क्या दौड़ में कभी वे
दीये से भी आगे निकलते हैं .

इंसान तनहा भला - कम से कम
किसी का इंतज़ार तो
नहीं करता - साथ के चक्कर में
रुका तो नहीं रहता .
अपनी व्यथा दिल में रखता है-
किसी से तो नहीं कहता .

मंजिल मिले - या खो जाए
किसी को अपना ले - या
किसी का हो जाए.
फिर सब कुछ उसीका - जीत भी
हार भी - नफरत भी प्यार भी .

Friday, May 13, 2011

बच्चों की तरह ६३ साल से पेट के बल रेंग रहा है -

बच्चों की तरह ६३ साल से
पेट के बल रेंग रहा है -
आखिर तू कब बड़ा होगा -
अपने दोनों पैरों पर -बता तो सही
कब खड़ा होगा .

अब तो गाँधी -नेहरु के
वंशज नाती -पौते भी कब के
बड़े हो गए -कुछ तो
काल के गाल में कब के खो गए .

तुझ पर कब तरुणाई आई-
हमे तो किसी ने बताया नहीं भाई .
हम तो आज भी ४७ से पहले के -
हाल में जी रहें हैं - आंसुओं का
सैलाब अभी सूखा ही कहा हैं -
ना जाने कब से पी रहें हैं .
घुट घुट कर मर रहें हैं -
मर मर के जी रहें हैं .

तुझे - पाल पोस कर
बड़ा करने का सपना - बस
सपना ही रह गया - याद है
तुझे -वो फिरंगी हमसे -
जाते जाते भी - क्या कह गया .

उठ जा यार- क्या कोई इस-
कदर बात बात पर रोता है.
चैन की नींद -घोड़े बेच कर
कोई इस तरह सोता है .

तेरे लिए हमने क्या क्या -
मन्नतें नहीं मांगी - मिन्नतें की
तलवारें तानी - तब कहीं तू
हमारे घर में आया था अज्ञानी .

अब तो धूप भी देख- काँधे से होकर
घुटनों पे उतर आई है - शाम
ढलने को है - बात मान
कोई दुल्हन देख - कर ले सगाई

हम भी - इसी बहाने देश भर में
बाँट देंगे मिठाई -बजवा देंगे शहनाई .
अब इतनी सी बात तो-
मान ले मेरे भाई .

तू अपनी बात तो कह - पर अपनी औकात में रह .

तू अपनी बात तो कह -
पर अपनी औकात में रह .
खता मत खा - दूसरों को
कोसने से बाज आ .

दूसरों की गलतियाँ -
ढूँढ़ते रह जाओगे तो
अपने दिलो-दिमाग को
फालतू का कचरा घर बनाओगे .

धर्म पर भाषण झाड़ना -
बहूत आसान है- पर स्व:धर्म
का पालन मुश्किल होता है .

तेरा धर्म बड़ा - अच्छा है -
तो क्या करूँ -
अपने धर्म के लिए जियूं
या तेरे धर्म के लिए मरूं .

बात जीने की कर यार -
धर्म - वर्म की बाते जाने  दे.
कितनी उमस हो गयी है -
जरा हट के खड़ा हो -
कुछ  ताज़ी हवा आने दे .

बात कुछ भी नहीं.

यूँ ही दिन गुजरते गए -
सूखे पत्ते से झरते गए .
जिन्दगी बस इस तरह तमाम हुई
और हम दिन पे दिन -आहिस्ता
आहिस्ता मरते गए .

क्या सुनाएँ -सहने को बहुत कुछ
कहने को कुछ भी नहीं.
बात इतनी सी है की -
बात कुछ भी नहीं.

Wednesday, May 11, 2011

मैं अकेला ही तो नहीं

मैं अकेला ही तो नहीं -
पूरी दुनियां -जहाँ -
है साथ मेरे -और हाँ -
तुम भी तो हो .

मुझसे प्यार जताने -
जीने मरने -साथ रहने
खाने के मिल जायेंगे-
सौ नहीं हज़ार बहाने .

क्यों अकेला कहूं - खुद को
न सही दोस्ती -रार तो है -
दुश्मनी में भी यार - कहीं
छिपा हुआ प्यार तो है .




Monday, May 2, 2011

याद में लिपटा तेरा एक पल.

चांदनी रात में -
सूखे पत्तों पर चल .
चाँद की पाँति पर
प्यार की लिख गजल .
फिर वही पल पल -
झूमती पागल हवा का
बहकता आंचल .

सिसकने दे आज तू जी भर -
उसी काँधे पर टिका के सर.
भूल जाने दे रात का शिकवा -
सुबह की बात याद आने दे .
वो महकता फूल सा कोमल-
याद  में लिपटा तेरा एक पल. 

ना कोई किसी का दोस्त होता है

 ना कोई किसी का दोस्त होता है
और ना दुश्मन- समय के साथ
रिश्ते भी बदलते रहते हैं .

पर नहीं बदलती मानवता
वो हमेशा - प्रेम के आवरण में
रहती है - सुन वो तुमसे क्या कहती है.
चाहो तो रख लो या -
अपने घर की जगह -पडोसी के
घर की तरफ मोड़ दो .
या धक्के खाने के लिए -उसे
पूरी दुनिया में कही भी छोड़ दो .

कौन किसका दोस्त था -
या  दुश्मन होगा - कल बताएगा
कौन तेरा साथ देगा और कौन
तुझे छोड़ कर जाएगा .

काश 'सोनी' ने ये सवाल
सौ बरस पहले पूछा होता-तो
कह देता -वो घर भी मेरा अपना है .
कैसे गिराने दूंगा वहां बम .

मेरे शहीदों का दीया -पूरे अविभाजित
हिंदुस्तान में जलता था .
मेरे घर की गली - उसकी गली से
सीधी मिलती थी -हर रास्ता
उसके घर को निकलता था .

कैसे समझाऊँ तुम्हे  - क्रांति
का रथ लाहौर से चल कर 
दिल्ली होते हुआ -
बंगाल में अंग्रेजों की -नाक के
नीचे जाके निकलता था.

सीमा की बाड़ें हट जाएँ -
जर्मनी की दीवार की तरह
गिर जाएँ - फिर देखना
दुनिया के दादाओ को भागने के लिए
पूरी दुनिया कम पड़ जायेगी .

फिर हम एक होंगे- और
देश नहीं महादेश होंगे .