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Tuesday, November 29, 2011

हमसा कोई था नहीं

हमसा कोई था नहीं
तुमसा कोई मिला नहीं .
क्या करते  - फिर
साथ तो एक होना ही था .

ना बादल बरसे - ना खेत
तरसे - नदिया थी ना साथ
फिर कोई बरसे की ना बरसे.

उसने सुनी नहीं   - मानी नहीं -
ना थी कोई कथा - कहानी नहीं .
दर्द हम सब के एक साथ - चले
पीर अपनी सी लगी  - बेगानी नहीं.

तू गज़ब लिखता तो है - पर
इसे पढता है कौन  - तू भी चुप
जमाना भी मौन - अब
इस बौझिल सन्नाटे को-
सिवा तेरे मेरे - आखिर तोड़ेगा कौन.




Saturday, November 26, 2011

मेरे नाम से पुकारो तुम .

ये वो कुछ और नहीं -
बस मुझे - मेरे
नाम से पुकारो तुम .

यहाँ - वहां कहीं नहीं -
बस - केवल
मेरी तरफ निहारो तुम .

जगह कम है - दिल में उनके
बस मेरी तरफ - आराम से
पाँव अपने पसारो तुम.

वहां मौसम - ना रौनक है
यहाँ -मेरे नजदीक आओ
झूम कर बहारो तुम .





 

Thursday, November 24, 2011

क्षणिकाएं

टमाटर को और मत दबा यार-
नाजुक है पर कपडे ख़राब कर देगा.
सहनशक्ति का आंकलन मत कर
ये हिन्दुस्तां है - कोई तमाचा जड़ देगा .

बाँध नदियों पे बनाये जाते हैं
सागर पर बने तो पुल भी बह जाते हैं .
कौन बांधे समंदर को यार - इसके
सैलाब में तो इतिहास गोते खाते हैं .
अवाम से डरते हो तो फिर भीड़ में आते क्यों हो
इतने ही भले हो तो फिर थप्पड़ खाते क्यों हों .
चलो कोई तो है जिसने जनता को
एक नया हथियार दिया -
ज्यादा सोचा ना समझा
और थप्पड़ मार दिया .
चलो गाना गायें - अमरीकी राग पर
मनमोहन के सुर में सुर मिलाएं .
बेस्वाद खाने से उब गए हम - चलो
अमरीकी ढाबे में चल के खाना खाएं .


 
 

Wednesday, November 23, 2011

रूप, रस, रंग नहीं

रूप, रस, रंग नहीं - अंग नहीं संग नहीं
नीरस जीने की अब कोई उमंग नहीं .
बिना पतवार के मैं पार जाऊं अब कैसे
झील से ठहरे जल में उठती कोई तरंग नहीं .

ये एक मुकाम पे आकर के रुक गए कैसे
बहूत दुश्वार पहुंचना जो - थक गए ऐसे  
जमीं चलती है  चाँद चलता है - कलुष घटता है 
सुबह होती है और शुभ्र  दिन निकलता है .

रात होने को है और सफ़र अभी बाकी है 
ये सरे शाम अलावों को तुम जलाओ मत
मंजिले दूर हैं -   यूँ  थकके बैठ जाओ मत
काफिले ठहरते नहीं - तुम भी रुक जाओ मत .


Sunday, November 20, 2011

शिखर पर बैठे हुए - ये किसके चहरे हैं .


शिखर पर बैठे हुए -
ये किसके चहरे हैं .
मुंह पर नकाब डाले - हैं
राम जाने क्यों इतने पहरे हैं .

मंजिल तो नहीं है - फिर 
इतने लोग यहाँ क्यों ठहरे हैं .
ये इतना चिल्लाते क्यों हैं -
क्या हम इतने बहरे हैं .

इस सभा में सब मौन क्यों हैं -
क्या कोई मर गया है - या
दिल के फासले बढ़ा गया /कम कर गया है .
गूंगे -बहरे अंधे हैं फिर भी  
चिंतन में क्या इतने गहरे हैं .

भीड़ तमाशाई तो है फिर भी
हाथों में पोस्टर - और 
जुबान पर ककहरे हैं - 
मरे हुए लोगों की - हर 
बात पर जय बोलते हैं 
बड़े अजीब - ये कफ़न ओढ़े 
मरे हुए से चेहरे हैं .

Saturday, November 19, 2011

धर्म की जय हो .

धर्म की जय हो . 
अधर्मियों का नाश हो .
देश का कल्याण हो - चहुँ
दिशी शुभ्र प्रकाश हो .

दिलों में - प्रभु का वास हो
स्वयं पर इतना विश्वास हो .
अपने कभी दूर ना हों - सभी
आस पास हों .

अँधेरे छंट जाए - दुखों की
बदली घिरी ना रहें - हट जाएँ
भव बाधा पार हो -
सत्य की जीत हो -
अरियों पर वज्र प्रहार हो .

प्रफुल्लित सा मन हो आज -
खुशियाँ ही खुशियाँ हो - दुखों का
हर तरफ - तिरस्कार हो .
ऐसी सदिच्छा है - ऐसा
सुहाना मेरा देश संसार हो .



कभी कभी मौन भी - काटता है

कभी कभी मौन भी - काटता है
अपना साया भी खुद को डांटता है .
ऐसे में कोई  - कहीं से आ जाए 
भर दोपहर में - बदली बन छा जाए.

पर ये होगा नहीं - क्यों की यहाँ
केवल मैं हूँ- और बोझिल तन्हाई है.
उसके आने की बात - किसने
ना जाने क्यों चलाई है .

कोई नहीं आएगा कहीं से - यूँ ही
वक्त गुजर जाएगा शायद - यूँही
मौसम की बात जाने दो - अश्क
बरसायेगा ना बादल - यूँही .







 

Wednesday, November 16, 2011

हाँ हम बुतों को पूजते हैं

हाँ हम बुतों को पूजते हैं -
आदमी तो बात बात पर -यूँ
ही सरे आम खड़े खड़े धूजते हैं .

न्यायकर्ता -कोमल
बदन-मन नहीं होता .
देने को तुझे भगवान के पास
कोई धन- जतन नहीं होता .
लोग कहते भी हैं - ये तो पत्थर हैं
इनके मन नहीं होता .

फिर कौन तुझे देता है - क्या
वो कभी किसी से कुछ लेता है -या
तेरे कर्म का उसके पास कोई लेखा है
या फ़राख गिरी से हरकिसी को -जब
चाहे मांगे बिन मांगे देता है .

सच तो ये है - वो देता जरुर है
पर झोली के हिसाब से - या फिर
पुण्य कर्मों के प्रताप से .
चींटी को कण भर और हाथी को 'मण' भर 
इसमें किसी को क्या गिला  - सब को
उसकी औकात के हिसाब से मिला .


  

Tuesday, November 15, 2011

कल तक यहाँ बस्ती थी मकाँ थे

कल तक यहाँ बस्ती थी मकाँ थे
पस्त पर मस्त लोग थे - अचानक
ये बियेबां कहाँ से उग आये .
ये जंगली बून्टें  मैंने तो नहीं उगाये .

खेत खलियान के बीच  - ये
कंक्रीट के बीज किसने बोये -
ये विलायती कीकर किसने लगाए .
कहीं वे अंग्रेज तो वापिस नहीं लौट आये .

भ्रम सा होता है - शर्म भी आती है
ये मेरा देश है - ये उसकी पौद
ये उसकी माटी है - चंद
खरपतवार नष्ट करने में 
किसी की जान -क्यों हर समय
निकली - निकली जाती है .

बांसुरी नहीं बजती - कहीं दूर
डी.जे की कनफोडू आवाज़ -
मस्तिष्क से क्यों टकराती है -
और देहाती जुबान - अंग्रेजी
आखिर किस लिए हो जाती है .




  





Monday, November 14, 2011

तू बरखा की बूंद

तू बरखा की बूंद  - मैं सागर का पानी
झुके आसमां सी - वो अल्हड जवानी
ना कोई कथा - ना थी कोई कहानी
जहाँ था मिलन - ना थी कोई रवानी .  

वो हिम पर्वतों से चली मस्त ऐसे
किसी परिंदे को मिले पंख जैसे -
बढ़ी वेग से - बात कोई ना मानी
कहीं ना रुकी - मिलने सागर से ठानी .

शहर गाँव - छोड़े , वो तटबंध तोड़े
वो बहती चली - मिले राहों में रोड़े .
थी कोई कशिश - खींचती थी उसे वो
ना रुकना गवारा - चली वेग से वो .

प्रणय था पर अभिसारिका वो नहीं थी 
मिलन के जतन में वो बढती चली थी
रुकी ना झुकी वो तो उन्मान्दिनी थी 
पवन वेग सी , कभी गज गामिनी थी  .

मिलन कैसा था वो - मैं अब क्या बताऊँ
सिमट कर नहीं - लट बिखरती चली थी.
वो प्रियतम से अपने लिपटती चली थी .
वो मां गंगा नहीं एक अल्हड नदी थी .

 




मैंने बचपन को - जाते देखा है

मैंने बचपन को - आते नहीं
बस जाते देखा है
कब चला गया - पता ही नहीं चला  .

लगा हम एक दम से बड़े हो गए .
ऊँगली पकड़ चलते हुए - ना जाने
कब अपने पैरों पे खड़े हो गए .

जब छोटा था तो -
जल्दी बड़ा होना चाहता था .
छोटा होना - मुझे
बिलकुल भी नहीं भाता था .

अब बड़ा हो गया हूँ - तो
फिर से धूल में खेलते हुए -
माँ को - खिजलाते हुए .
देखना चाहता हूँ .

पर मेरा आज , मेरे कल से
बहूत ज्यादा बड़ा है .
ऐसा नहीं होगा - जानता हूँ
क्यों की मेरा प्रतिरूप - आज
मेरी ऊँगली थामे खड़ा है .



Sunday, November 13, 2011

अब अकेला रह गया हूँ

करोड़ों से हजारों में - और
अब अकेला रह गया हूँ .
तुम्हें अहसास है -मैं
क्या कह गया हूँ .

कहाँ गए सब लोग -
ये क्रांति का कैसा चमत्कार है .
देश में अकेला मैं भलाचंगा-
बाकी सब बीमार हैं .

कहाँ से लाऊँ भला - एक
बाबा या एक अन्ना - पूरी
बारात तो साथ है - पर नहीं है
इसमें कोई एक अदद बन्ना.

बैंड- बाजा - घोड़े हाथी
यूँ तो पूरी फ़ौज है.
सैनिक मरते रहते हैं - वैसे
सेनापति की फुल फुल मौज है .

गांधारी -ध्रतराष्ट्र मंगलगान
गा रहें हैं - यूँ खुद को भरमा रहें हैं
राज्याभिषेक की तैयारी जोरों पर हैं
दुर्योधन के कलयुगी अवतार-
तशरीफ़ ला रहें हैं 

Friday, November 11, 2011

मजारों पे जलता दीया ढूँढता हूँ

मजारों पे जलता दीया ढूँढता हूँ
हर इंसामें मैं एक खुदा ढूँढता हूँ .

ये आदम की बस्ती - में हमसे हजारों
नहीं मिलता कोई -किसे  मैं पुकारूँ
तुफानो में मैं - नाखुदा ढूँढता हूँ.

सिकंदर बहूत हैं - कलंदर नहीं हैं
प्रभु हो जहाँ ऐसे - मंदिर नहीं हैं.
हूँ भटका हुआ -  रास्ता पूछता हूँ .

ये पीड़ा की कश्ती - मिले ठौर कैसे
इस काली अमा को - मिले भौर कैसे
तारों से  - सुबह  का पता पूछता  हूँ .

जहाँ - में ये मेरा वतन खो गया है.
अभी तो यहीं था - अब ना जाने कहाँ हैं
हर नक़्शे  में - मैं हिन्दुस्तां ढूँढता हूँ .

जो टूटे भ्रम - साथ तुम मेरे आओ
हरेक देशवासी की पीड़ा - बटाओं
मैं कदमो के अपने निशाँ ढूँढता हूँ .
 

 

गर मशाल हाथ में नहीं

गर मशाल हाथ में नहीं - तो बस
एक टांग पर मुर्गा बन खड़े रहो -
या चुपचाप अपने घर में -
निष्प्रयोजन पड़े रहो .

बचाने कोई नहीं आने वाला तुम्हें
वक्त फूल मालाएं भी चढ़ा देगा -
इस इंतजार में तस्वीर से
यूँही मत जड़े रहो .

जुए का दाव नहीं है - जीवन
ये उसी का होता है - जो लड़कर
इसे सर करता है - वर्ना काल तो
अवश्यम्भावी है - हर आदमी
मौत -बेमौत यहाँ मरता है .




जिन्दगी भी अजीब है -डूबती जाकर वहां है - जहाँ से साहिल बहूत करीब है .

जिन्दगी भी अजीब है -डूबती
जाकर वहां है - जहाँ से
साहिल बहूत करीब है .

लहरे हवाओं का - कभी
बुरा नहीं मानती - तुफानो
से लडती तो हैं - पर कभी रार नहीं ठानती.

एक हम हैं की चार कदम - चले
और बैठ जातें हैं - मंजिलें वहां से ही
शुरू होती है - जहाँ पहले पहल 
परिस्थितियों से हम मात खाते  हैं .

उपवास पर नहीं है सूर्य - अनशन
नहीं करता चाँद - कंदीलें लोग
सरे शाम से ना जाने क्यों जलाते हैं .

चाँद के  -हुस्न में अब वो
कशिश नहीं होती - ये बूढ़े लोग
ना जाने क्यों - चांदनी से यूँही जले जाते हैं . 


Thursday, November 10, 2011

ना परेशां हो गर

ना परेशां हो गर -
मुसीबतें पहाड़ हैं  - क्या हुआ जो
सामने सिंह की दहाड़ है  .
जंग जीतना मकसद है -तो
फ़िक्र कैसी - तेरे संग
इतने सारे फेसबुक के यार है .

Monday, November 7, 2011

सारे के सारे आज अन्ना हो गएँ हैं क्या

बेखबर दुनिया से यारो - बेखबर से हम .
ना कोई मिलने की ख़ुशी - ना बिछुड़ने का गम .
दिवाली - कभी तो ईद - कभी कोई खाली वार
बेमज़ा ख़बरें भरी हैं - अब क्या पढ़ें अखबार .

ढूँढें किसी को जाके कोई  - खो गया है क्या
बेख़ौफ़ कहीं जाके कोई - सो गया है क्या .
मेरा वतन क्या आज लन्दन हो गया है क्या .
सारे जहाँ को यार जाने हो गया है क्या .

किस्मत तुम्हारी ठीक थी - जो बच गए हो यार
बादल मेरी तकदीर जाने धो गया है क्या .
बहकी हुई -सी बात जाने कैसे कह गया
शायद ना जाने आज मुझको - हो गया है क्या .

बाकी ना कोई शय बची पूरे मौहल्ले में
मैदाने रामलीला में अनशन हो गया है क्या .
संता नहीं बंता नहीं - पंडित ना मौलवी
सारे के सारे आज अन्ना हो गएँ हैं क्या .