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Tuesday, November 15, 2011

कल तक यहाँ बस्ती थी मकाँ थे

कल तक यहाँ बस्ती थी मकाँ थे
पस्त पर मस्त लोग थे - अचानक
ये बियेबां कहाँ से उग आये .
ये जंगली बून्टें  मैंने तो नहीं उगाये .

खेत खलियान के बीच  - ये
कंक्रीट के बीज किसने बोये -
ये विलायती कीकर किसने लगाए .
कहीं वे अंग्रेज तो वापिस नहीं लौट आये .

भ्रम सा होता है - शर्म भी आती है
ये मेरा देश है - ये उसकी पौद
ये उसकी माटी है - चंद
खरपतवार नष्ट करने में 
किसी की जान -क्यों हर समय
निकली - निकली जाती है .

बांसुरी नहीं बजती - कहीं दूर
डी.जे की कनफोडू आवाज़ -
मस्तिष्क से क्यों टकराती है -
और देहाती जुबान - अंग्रेजी
आखिर किस लिए हो जाती है .




  





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