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Friday, October 28, 2011

कभी कभी - खुद पे दया आती है

कभी कभी - खुद पे दया आती है
और मैं निरीह सा हो जाता हूँ .

सोचता हूँ तो - कहीं खो जाता हूँ .
कभी अपना - और ना जाने
किस किस का हो जाता हूँ .
जो मेरे नहीं हैं - मैं हाथ जोड़के
उनसे क्षमा चाहता हूँ .

बहक गया हूँ - अलसुबह
माफ़ कर देना मुझे - यारो 
क्या कह रहा था - ना जाने
क्या-क्या कह जाता हूँ - इस लिए
अक्सर अकेला सा रह जाता हूँ .

छोड़ भी - गंभीर मत हो ज्यादा 
जाने दे - सोचने से क्या फायदा  
खुमारी रात की -उतरी नहीं
शायद मैं कह गया कुछ ज्यादा .


 

Thursday, October 27, 2011

एक मासूम - छुईमुई सी लड़की

( प्रिय सुनीता पाण्डेय उर्फ़ गुडियाको सस्नेह समर्पित )

एक मासूम - छुईमुई सी लड़की
बात बात में रुठती- मनती .
खेलती साथ - कभी लड़ाई ठनती.
साथ रहे बरसों - कभी बनती बहूत
कभी बिलकुल भी नहीं बनती .

वैसे दिल के करीब तो है -
पर अब बहूत दूर रहती है .

माँ आज उसके - आगमन पर 
पलके बिछा रही है .
एक नंबर की चुगलखोर -
आज मुझसे मिलने घर आ रही है .








 

चलो फिर से शुरू करें

चलो फिर से शुरू करें -
मंजिलों के पते - खोज लायें  .
साथ सूरज भी देगा जरुर -
आओ बूढ़े चाँद को -
सौर की भट्टी में- पहले तपायें 
और कुंदन सा दमकाएं .

बुझे तारों से ना रोशन होगा -
ये धुंधलाता जहाँ  - आ
माटी के दीपक को - अब 
अन्धकार से लड़ाएं .






Wednesday, October 26, 2011

कहीं कोई तो है

कहीं कोई तो है इस बेमुरव्वत जहाँ में 
जो बरबस मुझे - याद करता तो है  .

थके क़दमों के सफ़र में - बेमन से ही सही
साथ साथ गुजरता तो है  - बेरंग हो चुकी
जिन्दगी में - सतरंगी रंग भरता तो है  .

जाने क्यों आज याद आ रहा है मुझे - वो
अनजाना , अनदेखा दोस्त - लगे सपना सा  .
भले हो सपना सा -फिर भी मेरा अपना सा.

जो मिले तुम्हे - यहाँ-वहां आते जाते कहीं
सच खबर करना - रह रहकर बहूत याद आता है .
बिछुड़े मुद्दतें हुई - अब मिलने को दिल चाहता है .



Saturday, October 22, 2011

क्षणिकाएं

रब ने कोई ऐसा बनाया ही नहीं - 
मैं इंतज़ार करता रहा -
कोई आया ही नहीं .
किसी और के ख्वाब में ना सही-
अपने ही सपनो में खो जाएँ - 
ना सही कोई अपना - चलो 
हम ही किसी के हो जाएँ .


आकंठ गरल - हलाहल
यही तो है मेरे यार तुझे पीना .
अमृत की लालसा - व्यर्थ
मृत्युलोक में - जहाँ मरना
आसान है - पर बहूत
मुश्किल होता है जीना .
रजत शिखर सी तिमिर तोडती - चन्द्रप्रभा
हो कोटि सूर्य सी - रश्मि विहंसती रविप्रभा.
अन्धकार ना रहे - ज्योतिर्मय दसों दिशा
तड़ित - लड़ी सम जगमग दीपक की आभा .
प्रज्वलित दीपशिखा सदा हमसे कहती हैं -
नहीं तिमिर हो शेष - जहाँ पर हम रहती हैं . 
प्यार का अहसास - यूँ
बहूत नाजुक सी डोर है - एक
तरफ तुम - हो और दूसरी तरफ
कह नहीं सकता - मैं हूँ
या फिर कोई और है .
एक वो हैं जिन्हें जन्नत भी रास आई नहीं
एक हम उम्रभर जहन्नुम में बड़े मजे से रहे .   
ठीक से देखा है ना जाना तुमको
मिल गया अच्छा बहाना तुमको
अभी रुक जाओ - फिर बन जाना
कभी अजनबी .
 
भूखों से - फाकों का हुनर मत पूछों
अब किसका नाम लूं - जो बताये
मैं भूखा क्यूँ हूँ ?
जुगनुओं को सूरज मत कहो - तकलीफ होती है
माटी के दीये का जलना क्या टिमटिमाना क्या .
जलाना ही है तो बुझे सूरज को जला -
की रोशन हो सारा जहाँ - फ़क्त दीया तो
तेरे घर को रौशनी देगा.
दसों दिशाएं - सीए हुए लब 
मन की बातें कौन सुनेगा - अंतर
की पीड़ा को तेरी - अबतो
केवल मौन सुनेगा . 

 

Tuesday, October 18, 2011

तू भी दे दे श्रधांजलि

तू भी दे दे श्रधांजलि -
ना सही प्यार -
आखिर दिवंगत से कौन
रखता है रार .

अंग्रेजों के बाद - नए माई-बाप
पुराने 'सर' नए लाटसाब
कभी तो मरने ही थे - दुःख कैसा
निश्चिन्त हो सो जा - नवजागरण
की वेला में कमसे कम
इस कदर मातम तो मत मना.

क्या हुआ जो अभी वेंटिलेटर
पर अंतिम घड़ियाँ गिन रहें हैं .
अमा यार वैसे तो मर चुके हैं
बस चमचे अंतिम यात्रा की
तैयारी कर रहें हैं .

देखना कितनी धूम से
निकलेगी -ये यात्रा
जमाना बड़ी- हैरत से देखेगा
ये जनाजा और - हमारी
दूसरी आज़ादी का जूनून .  
या जश्ने आज़ादी - जब नहीं
बचेगी इन बदनुमा जिस्मों पर
एक भी चिंदी - खादी.

ये देश तेरे बाप का नहीं है


ये देश तेरे बाप का नहीं है -
की जैसे चाहे चला लो .
ना ही हम भेड़ हैं कि -
चाहे जिससे और
जैसे चाहे हंकवालो .

शेरों के लिए -पिंजड़े नए
इजाद मत कर - फिजूल की
बातों में अपना- और देश का
वक्त - बर्बाद मत कर .

इन नौटंकियों से कुछ होने-
हूवाने वाला नहीं - जनजागरण
और रथ यात्रा - बेकार जाएगी
इस तरह से तो तेरे चमचों की फ़ौज
यक़ीनन चुनाव हार जायेगी .

कुछ नया सोच - नया कर
कुर्सी नीचे से निकल ना जाए .
बेहतर तो है - किसी दुश्मन से
(पाकिस्तान ज्यादा मुफीद रहेगा)
रार ठान - या सीधे सीधे लड़ मर .

शायद कुछ समय - और चिपक
जाए कुर्सी से फेविकोल की तरह .
पर ये टोटके ज्यादा दिन -
काम आने वाले नहीं .
शाम डूबने को है - तेरा सूरज
भर दोपहर में बुझ ना जाए कहीं .

Monday, October 17, 2011

हर ख्वाहिशों से दूर

हर ख्वाहिशों से दूर -
चुपचाप - बिलकुल अकेले
कोई मिला ही नहीं- ऐसा
जो मुझे अपने साथ ले ले.

कितने अजीब से लोग
कितनी अजीब सी दुनिया
सबकी खबर रखने वालों को
खुद की खबर कहाँ .

जिन्दगी भर - कुव्वतें नापते
तोलते रहे - सीने में
बुलंद होसलों को टटोलते रहे .
बंद दरवाज़ों को खटखटाते रहे -
खोलते रहे - अपनी कभी नहीं
जो मिला उसकी जय बोलते रहे .

पर नहीं मिला - कोई भी
अपने जैसा अक्ष - जो भाजाए
दिल को ऐसा शक्श - पर
नहीं छोड़ी चाँद को छूने की आशाएं
ना समझ में आने वाली  - वो
प्यार की भाषाएँ -परिभाषाएं .

अब कैसे कहूं - बिना कहे कैसे रहूँ
तू ही कह दे - वो सब जो कभी
कहा नहीं गया - वो दर्द के सागर
जो आज भी यहाँ वहां - सब जगह
वैसे ही लहरातें हैं - आजकल
हम अपने पांवों पर चलकर नहीं 
उसमे डूब कर अपने- अपने घर जाते हैं .




Friday, October 14, 2011

नौटंकियों के देश में

नौटंकियों के देश में - बहुरूपिये
कदम कदम पर - नापते तौलते
पहले सोचते फिर बोलते .
हर आम और ख़ास को टटोलते.

गड़बड़ा जाते हैं - समीकरण
जब अर्जुन को - कर्ण ललकारता है
युधिष्ठर - जुआ जीतता है
भारत महाभारत से हारता है .

द्रोपदी- कपडे की चिंदी  के एवज़ में
कृष्ण को कोर्ट में घसीटती है -
भीड़ सरे आम कुलकलंक को -
बड़ी कचहरी में पीटती है .

ये क्या हो रहा है - इस मुल्क का
अवाम क्या बिलकुल बेसुध सो रहा है
पर याद रख - सारे घोड़े नहीं बिक़े
बचे अभी काफी हैं - अमन की
चिंता तो कर  - पर अब युद्ध पर माफ़ी है .




Thursday, October 13, 2011

चलो चले - रामलीला मैदान

चलो चले - रामलीला मैदान.
स्टेज पर चढ़ कर - जरा
ढूंढे तो सही - लौटे  हुए लोगों के
क़दमों के निशान.

दिवाली आने को - दशेहरा गए
दिन बीते - जो हुआ उसे भूल जाएँ
अगले साल - फिर से होगी रामलीला -
जिसे देखने फिर से आयें .

क्या पता कोई - सरफिरा 
अन्ना या बाबा - फिर ऐंठ जाए
मम्मी और भैया से परमिशन ले
और रामलीला मैदान में
अनशन पर बैठ जाए .


अरे तुम तो जलधर थे

अरे तुम तो जलधर थे-
धीर अडिग प्रशांत - यार
कैसे हो गए अशांत - बातों से
खामखाह तूफ़ान उठाने लगे .

अपनी सीमाओं का पता नहीं
दूसरों को उनकी सीमाएं -
क्यों बताने लगे .
अब तो लगता है - अन्ना का
संग भी - लोगों को तुम्हारे
सोचे समझे 'बहाने' लगे .

ये जनता की कोर्ट है -प्यारे
तारीख नहीं - सीधे इन्साफ करती है
ये भीड़ है - कहाँ किसी को माफ़ करती है .
ऐसे रोज रोज पिटोगे - इज्ज़त का
फालतू में कचरा करवाओगे .

आस्मां में उड़ने की छोडो -मियां 
अभी तो पाँव के नीचे - जमीन है
ऐसे ही दो चार एपिसोड- और हुए
तो इससे भी जाओगे .



Friday, October 7, 2011

ये अकेला चाँद - सारी रात

ये अकेला चाँद -
सारी रात ग़मगीन सा -
मौन हो टहलता है .
ना जाने मेरी तरह से 
इसका भी दिल -
क्यों नहीं बहलता है .

ये नदी दिन रात -
सतत यूँ ही बहती है -
अपनी ही मस्ती में -
ना जाने कैसे बेफिक्र सी
मस्त रहती है .
जुबान नहीं है फिर भी
कुछ तो कहती है .

ये मेरा क्षीण स्वर  ही सही
तुम तक जाके -
लौट आता तो है .
ये बंसी की मधुर धुनपर -
कोई सारी सारी रात
कुछ गाता तो है .

बहूत उमस है आज
कही दूर लगता है -
बरसा होगा सजल मेघ -
अब हर रोज मेरी -
छतके चक्कर लगाता तो है .

 



 

Wednesday, October 5, 2011

आओ दशहरा मनाएं

दशाअवतार - नहीं
बस राम हों - और
हम राममय हो जाएँ .
चलो 'सर' करलें -
दस सर -दस दिशाएं
आओ दशहरा मनाएं .

आक्रान्ता के भाल पर
उस काल विकराल पर
नए लेख लिखें - पुराने मिटायें
आओ दशहरा मनाएं .

ना भूलें - नारायण -नर को
सहस्त्रा कवच के एक एक -कवच को
भेदें - तिमिर की स्याही को-  चलो 
अगणित सूर्य की रश्मियों से नहलाएं .
आओ दशहरा मनाएं .

बुझे हुए चाँद तारों को- बदल दें .
राख के ढेर में दबी - चिंगारियों को 
कोटि कोटि सूर्यों की मानिंद जगमगायें .
दीवाली बाद में फिर कभी - पहले
आओ दशहरा मनाएं .

Sunday, October 2, 2011

खुली आँख के सपने

दिन दहाड़े - खुली आँख के सपने
त्रिआयामी होते हैं - भले
श्वेतशाम हों - ना सही रंगीन .
जिनके टूटने का - मन में
डर नहीं होता - सच तो ये है की
रात का सपना - मर ही जाता है
कभी अमर नहीं होता .

दिन के उजाले-के सपने
सूर्य की मानिंद  - इनकी
चमक कभी फीकी नहीं होती - नहीं
कैद होते पलकों के घेरों में .
नहीं टूटते कभी नीम अंधेरों में .

ये कभी स्वयम स्फूर्त
कभी प्रयास से - और कभी
देवकृपा से सच हो जाते हैं .