एक रिश्ता - बड़ा अनाम
सोचता हूँ दूं - उसे
कोई अच्छा सा नाम .
सावन सा उमड़ता -
घुमड़ता रीझता हो .
खिजाता हो - खीजता हो .
कोई ऐसी हो इस जहाँ में -
ऐ दोस्त
ऐ दोस्त
जिसका दिल मेरे दर्द से -
बेतरह पसीजता हो .
जो लड़ सके दुनिया से -
मेरे एक मुस्कराहट के लिए
पलकें बिछा दे मेरी एक
हलकी सी आहट के लिए .
बहूत सोचा - पर मिला नहीं
ऐसा कोई नाम - इस जहाँ में
जिसे दे सकूं - एक पवित्र
रिश्ते - बंधन का नाम .
नजरें बार बार - दुनिया
का चक्कर लगा - चकरा जाती हैं
फिर फिर वापिस लौट के
आ जाती हैं .
उसे ढूँढता रहा मैं बाहर
पर वो तो छिपी - हुई थी
मेरे घर के भीतर ही - यार .
किसी से अब कुछ और - कहूं तो
मेरी बहूत हेठी हो सकती है -
सोचता हूँ - वो सिर्फ और
सिर्फ - कोई और नहीं
मेरी माँ की बेटी हो सकती है .
उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...
सादर
अनु
वाह...सुन्दर...
ReplyDeleteसादर
बहुत खूब !!
ReplyDeleteपर 90 % सहमत !!
10 % किसी और
माँ की बेटी भी तो
हो सकती है जो
किसी को एक
धागे का प्यार
बंधन दे सकती है !
आपने सही कहा सुशील जी .
Deleteये बात भी उतनी ही सत्य है .
बल्कि ये कहें की कभी कभी
रक्त के सम्बन्ध मन के संबंधों
के सामने बौने पड़ जाते हैं .