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Wednesday, August 1, 2012

एक रिश्ता - बड़ा अनाम

एक रिश्ता - बड़ा अनाम 
सोचता हूँ दूं - उसे 
कोई अच्छा सा नाम .

सावन सा उमड़ता - 
घुमड़ता रीझता हो . 
खिजाता हो - खीजता हो .

कोई ऐसी हो इस जहाँ में - 
ऐ दोस्त  
जिसका दिल मेरे दर्द से - 
बेतरह पसीजता हो .

जो लड़ सके दुनिया से -
मेरे एक मुस्कराहट के लिए 
पलकें बिछा दे मेरी एक
हलकी सी आहट के लिए .

बहूत सोचा - पर मिला नहीं
ऐसा कोई नाम - इस जहाँ में
जिसे दे सकूं - एक पवित्र 
रिश्ते - बंधन का नाम .

नजरें बार बार - दुनिया 
का चक्कर लगा - चकरा जाती हैं 
फिर फिर वापिस लौट के 
आ जाती हैं .

उसे ढूँढता रहा मैं बाहर
पर वो तो छिपी - हुई थी 
मेरे घर के भीतर ही - यार .

किसी से अब कुछ और - कहूं तो 
मेरी बहूत हेठी हो सकती है -
सोचता हूँ - वो सिर्फ और
सिर्फ - कोई और नहीं 
मेरी माँ की बेटी हो सकती है . 




5 comments:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।

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  2. वाह...
    बहुत सुन्दर...

    सादर
    अनु

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  3. बहुत खूब !!
    पर 90 % सहमत !!
    10 % किसी और
    माँ की बेटी भी तो
    हो सकती है जो
    किसी को एक
    धागे का प्यार
    बंधन दे सकती है !

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    Replies
    1. आपने सही कहा सुशील जी .
      ये बात भी उतनी ही सत्य है .
      बल्कि ये कहें की कभी कभी
      रक्त के सम्बन्ध मन के संबंधों
      के सामने बौने पड़ जाते हैं .

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