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Friday, April 29, 2011

चल चलें - सागर किनारे

तूफानों को झेलना है -
या लहरों से खेलना है तो -
फिर झील क्या नदी क्या  -
चल चलें - सागर किनारे .

डूबने को तैयार बैठे हैं इरादे 
बाट देखें क्यों किसी की आज सारे
खड़ें हैं तूफ़ान जब बाहें पसारे.
सोचता है क्या उठ खड़ा हो -
चल चलें -सागर किनारे .

नाव चाहे डूब जाए - फ़िक्र कैसी .
निकल कर घर से -
किनारे आ गए जब .
आज इस तूफ़ान की ऐसी की तैसी .

आज लहरों से भला - तकरार कैसी
डूब जाना जिन्दगी में -
जिन्दगी है .
डूबने वालों की भला- फिर हार कैसी .

Wednesday, April 27, 2011

मुक्तक

अपना कहते भी हो - दूर-दूर रहते भी हो
ये कैसा दस्तूर चल पड़ा है आजकल .

पसीने की गंध को , खुशबुओं से दूर रख
अभी -सोया है फुसफुसा के जरा बात कर
ये आम आदमी नहीं है - अब ख़ास है यार ,
अरे अदब से जरा -दूर हट के मुलाकात कर .

बड़े गैर से -जरा अपने से -जाने क्यों लगते हैं
हमे ना जाने क्यों -ये सपनो की तरह ठगते हैं
रहनुमा बन के यूँही  मेरे पास आओ तो सही
करी क्या खता -तफसील से समझाओ तो सही .

जो कल तक -शिद्दत से छत की तलाश में था,
वो मेरा सरपरस्त - मालिक मकाँ है आजकल .
अंधेरो से निकल - रौशनी से कभी मिला भी नहीं,
कहता फिरता है - दिन में अँधेरा है आजकल. 

Tuesday, April 26, 2011

करिश्मा भाग्य ने ऐसा कुछ दिखाया तो सही ,
गरीब नवाज़ -चल के मेरे दरपे आया तो सही.
समझ भी लेंगे दिल के हालात -जल्दी क्या है ,
कम से कम नाचीज को तुने अपनाया तो सही.  

Monday, April 25, 2011

दादा -अब वापिस लौट आओ

दादा  -अब वापिस लौट आओ
कितने दिन हो गए -घर छोड़ कर गए .
अपने माता पिता माना गरीब हैं -
पर पांच- पांच बेटों के होते
इतने भी कहाँ बदनसीब है .

पता है- तुम्हारे जाने के बाद -
तीनो छुटके - भी जो
शरारती कहाँ थे -कम
भूरे-साहूकार के घर में फोड़ आये  थे  -
दिवाली के सुतली वाले बम .

तब से वे तीनो  भी -आज तक
घर लौट के नहीं आये -मुझे
बहूत डर लग रहा है -लोग
उनके बारे में तरह तरह की
बात करते हैं- कहते हैं 
साहूकार ने उन्हें पेड़ पर लटका
मार दिया है .

माँ की दोनों आँखों में -
मोतियाबिंद उतर आया है .
अब -तो बहूत बूढी हो चुकी है.
हमेशा तुम्हारी याद में रोती है.

देख आती है आज भी उस राह को -
जिस पर चल कर तुम गए थे और-
आज तक नही लौटे - उसकी तो
जिन्दगी ही बीत गयी -
तेरी याद में रोते रोते .

तुम्हे याद  है -
गाँव का भूरा साहूकार -चोर
कब का खाली कर गया -
अपनी पुरानी वाली  पुश्तेनी हवेली.-
बस गया है -कहीं और .

और हाँ - चाचाओं के -
बच्चे अब अपने साथ नहीं रहते.
बंटा लिए हैं अपने -हिस्से के
घर जमीन और खेत.

बाबा उस दिन बहूत रोये थे -
पर वे नहीं माने -और आज कल
अपने -दुश्मनों से हाथ मिलाये हैं-
वैसे हालत उनके भी-
कोई बहूत ज्यादा ठीक नहीं है -
कल ही किसी ने बताये हैं .
   
ये मेरा आखिरी ख़त है - अब भी
लौट आओ - खेत में बड़े बड़े
खरपतवार उग आये हैं - बंजर
जमीन हो गयी है -नहीं बोया  .
तो फिर- कोई फसल नहीं होगी .
घर और -बाहर अपने परिवार की 
बहूत हतक होगी .


(नेताजी सुभाष चंदर बोस को समर्पित)



Saturday, April 23, 2011

थोडा सा मुस्कुराइए

जिन्दगी की आपाधापी में -
चेहरे पे पड़े मानचित्र से निशान -
मिटाइए - मान भी जाइये ,
आपकी सूरत सवंर जाएगी
थोडा सा मुस्कुराइए ...!!!

Friday, April 22, 2011

ना जाने तू किस ख्याल में है

ना जाने तू किस ख्याल में है
मेरा हर गीत -सुर और ताल में है
मैं ना सही -कोई और
गायेगा मेरे जाने के बाद -भी
ब्रह्माण्ड में समां जाने के बाद -
नाद नहीं मरता -शब्द ब्रह्म हो जाता है .
याद रखना -अब अकेला नहीं हूँ मैं .

अब तो थाम लो कमान

अब तो थाम लो कमान -
गहरी नींद में सोये जवान -
अब तो जागो -मेहरबान .

इटली की अम्मा -अपने लाल
को हिंदी -हिन्दू-हिंदुस्तान का
कलमा पढ़ा रही है -और देश के
गली- गली ,गाँव- गाँव घूमा रही है .

मेरे नौनिहोलों को -अंग्रेजी
के कायदे रटवा रही है -और
अमेरिका-विलायत तरक्की-
करने को -भिजवा रही है .

कितनी मजे की बात है
ये विलायती तहजीब हमे-
खूब भा रही है - जाने क्यों
हम हिन्दुस्तानियों को-
फिर भी शर्म नहीं आ रही है . 


हे कान्ग्रेश्वरी -क्षमा करें ,

हे कान्ग्रेश्वरी -क्षमा करें ,
पर दुविधा में हैं -
ये बाप दादाओं की पगड़ी -
आदेश दें - हम
किसके -सर पर धरें .

माना बोलने पहनने की-
पार्टी में कहाँ आजादी है ,
पर हे इटलीसुता  - ये तो शुद्ध खादी है.
अपना राहुल -बाबा कौन सा
ठेठ इलाहाबादी है .

कहो तो - खैरात में
किसी चर्च में दान करा दें .
या किसी स्विस बैंक में रखवा दें .
या इटली पहुंचा दें . 
आदेश तो दीजिये -इसका 
जो कहें वो करवा दें .

गाँधी की -समाधि पर 
इसे भी दफना देते -तो
आज ये दिन नहीं देखने पड़ते.
हिन्दुस्तानी मुकुट -
बूढ़े मनमोहन सिंह
के सर पर नहीं धरने पड़ते .



 


 

Thursday, April 21, 2011

'हार'

उसने कहा निश्चित हार है -
हमने कहा -बिलकुल बेकार है .
'हार' - हारने वालो को कहाँ .
विजेता ही तो 'हार' का असली -
हकदार है .

आँख तो आँख है - जलभरी सी

आँख तो आँख है - जलभरी सी
बरस जाए तो अच्छा .
आजिज आ गए हैं -
तनहाइयों से इतना - कोई
घर के किवाड़ बजा जाए तो अच्छा .

तुम आ नहीं सकते-हम बुला नहीं सकते .
बीच राह दोनों कही आ जाएँ तो अच्छा .
दीवारे भली हो -भले इस छत के लिए -
दरमियाँ खिंची -कोई दिवार
ढहा जाए तो अच्छा .

चुप्पी भली नहीं अब -टूटे तो सही
इस घर पे कोई एटमबम-
गिरा जाए तो अच्छा .

Wednesday, April 20, 2011

फूल कि उम्र कुछ छोटी नहीं होती


क्यों डरता हैं उस अकाल -काल से
घटते हुए पल दिन महीने साल से .
फूल कि उम्र कुछ  छोटी नहीं होती -
महकता है सुबह से शाम -रात तलक -
और मुरझाने से पहले -किताबों में भी
महकता रहता है -सूख जाने  के बाद .

Tuesday, April 19, 2011

हमारी सम्वेदनाएँ मर चुकी हैं

हमारी सम्वेदनाएँ मर चुकी हैं -
या आत्म हत्याएँ कर चुकी है .

एक आदमी चार दिन के
अनशन करने से -पूरे
देश का हीरो बन जाता है .
पर मुल्क की आधी जनता-
अधपेट सोती है - पर इसकी
चिंता आखिर हमें  -
क्यों नहीं होती है .

अमीर देश के -गरीब अवाम
की बेबसी पर किसी  भी नेता
की आंख नम क्यों नहीं होती है.
इनकी सम्वेदना आखिर कौन सी
गहरी निंद्रा में सोती है .

मजे की बात है - किसी को कोई
फर्क नहीं पड़ता -ये आँख तो बस
यूँ ही रोती है-किसी को इसकी
चिंता बिलकुल भी नहीं होती है .

जालिमों  से -डंडे पड़वाने वाला
आज़ादी का -मसीहा कहलाता है .
देश नहीं पूरी दुनिया में -भगवान की 
तरह सम्मान पाता है- और
सीने पर गोलियां खाते हुए-
देश पर शहीद होने वाला -
अहिंसा के पुजारिओं की नजर में
आखिर बागी कैसे हो जाता है .

देश को गिरवी रखने वाला - इस देश
का नेता बन जाता  है - और
सीमा पर -आक्रमण झेलते हुए
शहीद होने वाले का पिता -मात्र 
पेशन का हकदार कहलाता है .

हमारी तलाश इन कमीने -चंद नेताओ
पर  आकर ख़तम क्यों हो जाती है
इन डेढ़ अरब की भीड़ में -क्या
हमे कोई भी नेता नजर नहीं आता है .
इन चोरों को - पहरेदार बनाना
आखिर हमें क्यों  भाता है .
 





Friday, April 15, 2011

बैसाखियों के सहारे जो

बैसाखियों के सहारे जो  -
घर से निकलते हैं -
यकीन मान -
वे बहूत दूर नहीं चलते हैं .

वे मस्तक कभी सम्मान से -
कहाँ उठा पाते हैं -
हम अपना अस्तित्व -
आखिर क्यों खोना चाहते हैं.

वे शासन के शरणागत-  नहीं होते
उनके द्वारा तो  -फरसे से
आततायी राजाओं के -
सर काटे जाते हैं .

तू बुझदिल -कमजोर नहीं है
आँधियों में तनकर खड़ा हो -
अपने कद से और-बड़ा हो 
अपना सहारा आप बन .

(ब्राह्मणों को आरक्षण मांगने के सन्दर्भ में )

Thursday, April 14, 2011

हंसी और खुशियाँ मनाना ही नहीं - जिन्दगी

हंसी और खुशियाँ मनाना ही नहीं - जिन्दगी
परेशानियाँ और ढोकरें खाना भी जिन्दगी है ,
किसी के विरह में ग़मगीन रहना ही नहीं कुछ
किसी अपने को भूल जाना भी जिन्दगी है .

दोस्ती साथ नहीं चलती - उम्र भर लेकिन
दुश्मनी रखना -निभाना भी जिन्दगी है.
बहार में आप  रोने की बात करते हैं -
दर्द में हर पल - मुस्कुराना भी जिन्दगी है .

तुझ को खोया तो लगा  - बहूत ठीक हुआ शायद
मरे रिश्तों से अपनी गर्दन छुड़ाना भी जिन्दगी है.
भय के प्रेतों से जान अपनी बचा के रखना   -
मौत के सामने -हिम्मत से डट जाना भी जिन्दगी है .
   
वो भला आदमी - जो सीधा साधा सा  है
ऐसे लोगो को  फिर सताना क्या रुलाना क्या
सभी कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे - ऐ दोस्त
तुमपे ग़ज़ल लिखना -पढना सुनाना भी जिन्दगी है .

Wednesday, April 13, 2011

लहरों को - रोको मत

लहरों को - रोको मत
बहने दो -
वो जो कहना चाहती हैं -
उन्हें कहने दो .

बांध - नदियों को
निश्छल बहने से -रोकते हैं .
ये बरसाती परनाले -आखिर क्यों
तुम्हे बार बार टोकते हैं .

तू सागर है - नदी नहीं
जिसे बाँध ले - ऐसा कोई
तटबंद नहीं जो -उमड़ते
तुफानो के रास्ते रोक ले.

रुका मत रह - तट पर
तुफानो के मिजाज -चाहे
कितने सवाली हैं-
तेरे हाथ पतवार- है
धाराओं के हाथ तो - आज भी
खाली हैं .

चल -निकल चल उस राह
जिसके नाम से लोग -आज
भय खाते हैं
नाम तो उनके ही होते हैं -
जो उस रस्ते पर -
अपने नाम के -मील के
पत्थर अपने हाथों से लगाते हैं .-

और सपने देखते ही नहीं -
उन्हें सच भी बनाते हैं .




Tuesday, April 12, 2011

नाना कहते हैं

नाना कहते हैं - तेरी माँ की माँ
भी एक परी थी .
चुपचाप उतर आई थी एक दिन
आंगन में - और ये घर
बन गया था उनकी कल्पनाओं
का परीलोक.

माँ कहती है -
पापा एक दिन -चुरा लाये थे
उन्हें सबकी नजर से छुपकर.
और फिर चाँद तारों की
दुनिया छोड़ कर -
उतर आई थी तू -मेरे आंचल में.

भैया -ऊँगली पकड़ कर
मुझे -चलने का हुनर सिखलाता है
अभी छोटी हूँ ना -
मुझे चलना कहाँ आता है .
हर कोई मुझे -यूँ ही बहलाता है .

पापा कहते हैं - तू परी है
बहूत दूर से आयीं है -
मैं जानती हूँ -सब झूठ बोलते हैं .
भैया सच कहता है - माँ मुझे
डाक्टर आंटी के घर से लायी है .

Monday, April 11, 2011

सारे सपने तुम्हे समर्पित

सारे सपने तुम्हे समर्पित
तुम मेरी आस्थाओं के
वो अंतिम कलश हो .
जहाँ पहुँच कर -
साँसे टूटने लगती है -
आशाओं की.

ये देह तन - सम्पूर्ण मन
तुम्हे समर्पित -
सांसों के उद्वेग कह रहे हैं -
तुम गए नहीं कहीं
बिलकुल मेरे पास -
हो यहीं कही .

उम्र के वे सारे पड़ाव
तुम्हे समर्पित
जो मैंने जिए नहीं -
केवल गुजरा भर हूँ -
वक्त की आंधियों ने
मोहलत ही नहीं दी
के मुड कर देखूं .
क्या मिला क्या छूटा-
कौन मना कौन-
ना जाने कब रूठा .

तुम्हे देख सकता हूँ -
महसूस कर सकता हूँ
पर- छू नहीं सकता हूँ -
क्योंकि मैं शरीर नहीं हूँ -
पञ्च तत्व का ,
केवल भाव शरीर हूँ -बस .

समय नहीं है मेरे पास

समय नहीं है मेरे पास - की अभी
और रुकूं और देखूं - ये दुनिया .
और तुम्हे -कुछ देर अभी और .

जितना जी लिया - शायद बहूत था
क्या करूँगा - तेरी सांसे चुरा कर
किस लिए - किसके लिए
जब तू ही नहीं तो -जीवन क्या

तुम बने रहो -देखो ये जहाँ
अपनी मंजिल - पा लो .
मेरा क्या है - मैं कही हूँ भी या नहीं .
किसी सफ़र में - किसी डगर में
या किसी के दिल में - या कहीं नहीं
क्या फर्क पड़ता है .


हे मनमोहन वादा करो

हे मनमोहन वादा करो - अब
और ज्यादा नहीं सताओगे .
इस देश की जनता को -
कब तक अपनी रहमतों से
नवाजोगे -सितम ढाओगे .

कब तक महूरत निकलेगा -
किस पंडित मालवी को -दिखाओगे
सच सच बताओ - हे वियोगहरी
हमे छोड़ के -आखिर कब जाओगे .

Sunday, April 10, 2011

मुझ से क्या पूछता है

मुझ से क्या पूछता है -
मेरे पांवो के- छालों से पूंछ .
सफ़र कैसा बीता .

मेरे हम निवालों से-
क्या पूंछता है -पूंछ
मेरे भूखे घरवालों से-
रात कैसे बीती .

मौसम के क्या मायने होते हैं -
जेठ की धूप सर पर
झेलते - देश के उस
अन्दाता से पूंछ .

तुझे सम्मान की जिन्दगी
देने की चिंता में,
देश की आजादी की
भट्टी में खुद को झोंकते -
उन वीर शहीदों से पूंछ -
क्या होते है -
आजादी के मायने .

खुदगर्जी में खोये इन -
नेताओं से पूंछ -कहाँ हैं
कटी उँगलियों के निशान -
इनके पुरखों की कुर्बानियों
की दास्तान - या यूँही कहते
हो (मेरा देश नहीं) मैं -
और मेरा खानदान महान .

अब याद नहीं आयेंगे - किसी को
मेरी पीठ पर छपे - अदृश
हंटरों के निशान.-
क्यों ठीक हैं ना श्रीमान .

माँ तो -बस साक्षात् माँ होती है .

 माँ तो -बस
साक्षात् माँ होती है .
तुम्हारी पीड़ा -देख
जानते भी हों कितना रोती है.

पर तू क्या जाने -
दिल की बात - क्यों की
ममतामय हृदय -
कहाँ है तेरे पास .

करुणा की नदी-जब
वेगवती हो - बहती है .
अरे मुर्ख वहां ही तो -
माँ रहती है .

पर तुझे कहाँ है -उसके
होने का अहसास- की
वो यही कहीं है - तेरे दिल के
बिलकुल पास .

जब भी तेरी ममता -
बहन -बेटी के लिए
दिल में पलती है -माँ
नाम की नदी वहीँ से तो -
बह निकलती है .
 

Saturday, April 9, 2011

मैं एक बीज था

मैं एक बीज था - पिता के हाथसे
छिटक कर वसुंधरा की -
गोद में आ गिरा-और उसने
मुझे ममता के आंचल में- सहेज लिया .

निर्बल - कमजोर अस्तित्वहीन सा
माता-पिता की गोद में -यात्रा की .
कभी गोद- कभी कांधे पर -
चढ़ते उतरते- घुटनों के बल
रेंगते हुवे -पिता की ऊँगली पकड़
लड़खड़ाते हुए - खड़ा हुआ.

पिता - की लायी तिपहिया-
साईकिल से आंगन में -
घूमता - हँसता ,खिलखिलाता .
पर जल्दी ही -मेरी कल्पनाओं में
पंख उगने लगे -और
घर का आंगन छोटा पड़ने लगा.

पिता से विनती की -
दुनिया को देखने की .
पिता ने सुंदर नयी सी कार ला दी.
अब मैं था और - सामने था
बाहें फैलाये सारा संसार.

घर से चला - माता की ममता
छूटी - पिता के अनुशासन से -दूर
चल पड़ा -देखने नया संसार
कहीं रूकता - किसी से
मिलता - किसी को साथ लेता
किसी के साथ चलता .

याद आने लगा था -पिता को दिया
वचन- रात से पहले घर वापिस
आने का - पर बहूत दूर
चला आया था - जाने कितनो का
अपना बन गया था - कितनो ने
अपना बनाया था .

जर्जर हो चली थी कार - और
उर्जाहीन -चलने को नहीं थी
तैयार - शाम ढलने लगी थी.
वापिस लौटना था मुझे - अपने
पिता के पास- अपने घर .

दौड़ पड़ा था - पैदल ही
पर थकने लगे थे पाँव .
टूटने लगी थी उम्मीदें ,
मैंने वहीँ से - पिता को पुकारा
हे पिता - मैं कैसे आऊँ ,
बिना किसी आधार के - कार के .

पिता खुद -पैदल चल के
मेरे पास आया - अपने हाथ
में उठाया -और
अपने साथ मुझे घर ले आया.
अब मैं फिर से एक बीज था .

Wednesday, April 6, 2011

घर से बाहर निकल

घर से बाहर निकल -
अरे चौक तक तो चल
आज  भारत -मिस्र और
रोम हो रहा है ,

तू कैसा इंसान है
जो खूंटी तान के-
गहरी निंद्रा में सो रहा है .

सच है जिसे लोरियां देके -
अफीम के नशे में -सुलाया है .
कैसे जागेगा -
उसका विश्वाश की
उसके चूल्हे के लिए -घर घर
चिंगारी बेचने-
कोई बहूत दूर से आया है.

बाहर निकल कर देख -
कैसे सरमायेदारों, राजनेताओं के
घर लुट रहें हैं ,
आस्मां में दिवाली के से अनार -
फूट  रहें हैं .

उठ कर स्वागत कर -
उस रहनुमा का
देख इस संसद नुमा मकान के-
ऊँचे ऊँचे कंगूरे टूट रहे हैं .





जी हाँ मैं गीत बेचता हूँ

जी हाँ मैं गीत बेचता हूँ -
प्रेम के प्यार के -दुश्मनी के
रार के -रूठने मनुहार के .
मैं अपनी हार -तेरी जीत के
गीत बेचता हूँ .

तेरी एक हलकी सी-
मुस्कराहट के - नाम
शब्द का  संगीत बेचता हूँ ,
सच मान मैं गीत बेचता हूँ .

बाकी नया है -ये जरा पुराना है
शहीदों का गाया -राष्ट्रिय तराना है .
शहीदों के मजार पर -काफिरों
के शीश बेचता हूँ .-
जी हाँ मैं गीत बेचता हूँ .

ये जरा विचारों से भारी है - जी नहीं
जुगनू नहीं पूरी -जीवित चिंगारी है -
ये दिलों की आग सुलगाने- दिल्ली आया है.
ये जरा हल्का है (मन) मोहनी अंदाज़ में
शायद  किसी ने मुजरे में -गाया है.

कहिये और दिखाऊँ -खरीदेंगे .
ये थोडा खुदगर्जी है -वैसे आपकी इच्छा 
दिल में रखो - या किसी को तोहफे 
में दे दो - आपकी मर्जी है .

ये बस एक बार काम आएगा - गर गुनगुनाया
तो सारा मुंह जल जायेगा .
हाथ से निकल गाया- तो
दुनिया जहाँ को पता चल जाएगा .

(पूज्य श्री भवानीप्रसाद मिश्र जी की कविता
 से प्रेरित )

Sunday, April 3, 2011

क्यों खेल से जलते हो यार

क्यों खेल से जलते हो यार ,
क्यों रोकते हो -हमे
महिमा मंडित करने से
हमारे होनहार खिलाडिओं के घर
संपदा से लबालब भरने से .

तू दस जन्मो में इतना कहाँ पायेगा
जितना एक मैच ही उन्हें दे जाएगा .
तू तो घर में भी विसमृत है -प्यारे
उनको तो देश सर आँखों पे बिठाएगा.
पर क्या ये बल्ला -
जंग में भी इसी तरह-
चोके छक्के लगाएगा .

खेल के मैदान की जीत -कोई
जंगे -मैदान की फ़तेह तो है नहीं ,
की पूरी दुनिया से लोहा मनवाएगा .
और दादाओं की तरह तेरा नाम भी
अमेरिका के तरह लिया जाएगा .

पर ये काम तो हमारे सेनिक कर लेगें
देश को बचा लेंगे -खुद बच गए
तो तनखा है ना यार -
काम आये तो घर वाले,
पेंशन से काम चला लेंगे .
उन्हें धन की कहाँ है दरकार -
एक जिन्दगी की कीमत -
और कितनी लेगा यार .