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Saturday, November 19, 2011

कभी कभी मौन भी - काटता है

कभी कभी मौन भी - काटता है
अपना साया भी खुद को डांटता है .
ऐसे में कोई  - कहीं से आ जाए 
भर दोपहर में - बदली बन छा जाए.

पर ये होगा नहीं - क्यों की यहाँ
केवल मैं हूँ- और बोझिल तन्हाई है.
उसके आने की बात - किसने
ना जाने क्यों चलाई है .

कोई नहीं आएगा कहीं से - यूँ ही
वक्त गुजर जाएगा शायद - यूँही
मौसम की बात जाने दो - अश्क
बरसायेगा ना बादल - यूँही .







 

1 comment:

  1. कभी कभी मौन भी - काटता है
    अपना साया भी खुद को डांटता है .
    अनुभूति की सुंदर अभिव्यक्ति!

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