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Monday, March 7, 2011

तुतलाई जुबान से जब - तुने मुझे पापा कहा .

तुतलाई जुबान से जब -
तुने मुझे पापा कहा .
एक क्षण को भूल गया था -मैं
अपने आप को -तुझ से जुड़े
अपनी जिम्मेदारियों
के अहसास को .

फिर अमर बेल सी - जाने
कैसे लिपटती चली गयी थी -
मेरे  अस्तित्व से - पर हर
बार याद आ जाता था तुझसे जुड़ा-
मेरा कर्तव्य बोध .

बहूत खुश नहीं था -जब
तुने छू ली  थी -आकाश की
बुलंदियां को - लिख दिया था
मेरा नाम -अपने नाम से पहले .
पर मेरे कर्तव्य बोध ने -फिर से
मुझे सावधान  किया था .

और आज दुल्हन के रूप में -
देख रहा हूँ सजे हुए -तुझे
अपने से अलग -करने के
मेरे सपने साकार हो गए हैं  .

मेरे आँखों के समंदर अब -
छलकने को हैं -पर जज्ब कर लेता हूँ
पलकों के भीतर ही -ना जाने क्यों .
लगता है ये घर की बहार -ना मालूम
अब वापिस लौटेगी भी या नहीं .

अपने बगीचे की सबसे सुंदर
जूही की कलम -लगा दी थी
किसी और के उपवन  में -
खुशबुओं के विस्तार के लिए .
ममता और प्यार के लिए .
इस महा मत्स्य को अपने
विस्तार के लिए- घर का
फिश अक्वारियम अब -
छोटा पड़ने लगा था .

अकेला रह गया हूँ -आज
अपने ही घर में -अजनबी सा .
सब कुछ है -सब लोग हैं ,
पर तेरे बिना -कुछ भी नहीं है .

चौंक जाता हूँ - तभी उस
चिर परिचित आवाज़ से .
मैं आ गयी हूँ पापा -
नजरें भर आई हैं -पर
नहीं - अब ये सब नहीं .
क्यों की मूलधन के साथ
सूद भी लौट आया है आज .
राजकुमारी के साथ -
एक राजकुमार भी है.



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