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Friday, March 18, 2011

हे पथिक तुम कौन हो -

हे पथिक तुम कौन हो -
किस लिए इतने मौन हो .
दुनियां- सारा जहाँ .
स्नेह के आवलंबन छोड़ -
क्यों चले आये यहाँ ?

मेरे पास कुछ भी तो नहीं उपहार -
तुम्हारी प्रतिबधता के उत्तर में.
दे सकता हूँ केवल निर्मल प्यार .
यहाँ -बस यही उपजता है  .
जो मैं किसी को दे सकता हूँ.

मैं देव नहीं हूँ - फिर भी
उनके सानिग्ध्य में  रहता हूँ.
अपने अंतर्मन की व्यथा -समभाव
से सहता हूँ -किसी से नहीं कहता हूँ .

अभी तो महंदी हाथों से  छूटी नहीं -
आशा की डोर पतंग सी उड़ रही है -
कटी नहीं टूटी नहीं -
फिर क्यों आ गए इस कानन में -
कुछ  तो बताओ क्या है -तेरे मन में .

ये एकतरफा रास्ता आगे नहीं जाता-
जाने वाला वापिस लौट कभी नहीं आता .
आगे क्षितिज की कल्पित सीमा रेखा -
धरती आकाश को जोड़ देती है  -
पर एक अनंत -सफ़र के लिए .-
अपने सारे बंधन खोल देती है -







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