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Friday, February 25, 2011

फिर बसंत क्या -पतझर क्या

फिर बसंत क्या -पतझर क्या
क्या फर्क है मुझे -समझा जरा .

इस सुर्ख गुलाब -की कलि ,
तू चाहे तो देख ले -गली गली .
प्रेम के खेल में ,वासना के मेल में

जो हिन्दुस्तानी ना रहा -वो
फिरंगी बनेगा क्या ?
इनकी जवानी क्या - जो बंध गया
उस दरिया की रवानी क्या .

कोडियों के मोल में -बिना किसी
भाव तोल में ,इससे ज्यादा और क्या
पायेगा -जिसे आज की चिंता नहीं ,
कल जो होगा देखा जाएगा .

ये जिन्दगी तो मस्त फ़ानी है -
हर जवान ,हर नवयोवना की -
बस एक सी कहानी है .

इतनी तेज रफ़्तार -
कोई कमो बेशी नहीं यार.
चलते चलते पढ़ते -खाते है .
मेट्रो में चढ़ने से उतरने तक ,
मोबाइल पर लगातार-
जाने किस-किस से बतियातें है .

क्या देंगे ये देश को -
जिनका सपना विलायती है -
देश तो परदेश है .

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