मेरी - किलकारी
लगाने में - झूमता खुश होता .
गले लगाता -मेरे साथ
खेलता -मेरे जागने से
पहले - राम जाने
कब सोता .
बड़े जतन प्रयत्न से
मेरी हर सही गलत
मांगों को - जाने कैसे कैसे
पूरा करता -
मुझे -खिलाता और
खुद - अधपेट सोता .
अनपढ़ - गंवार
जाहिल सा - इंसान
वो कोई गुरु नहीं था -
पर पुरे जहाँ - में उससे
ज्यादा ज्ञानी - मेरी
जानकारी में - तब
कोई दूसरा नहीं था.
वो था - मेरी दुनिया की
पहली पाठशाला .
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का
पहला शब्द - बाबा
सिखाने में - कितनी
मेहनत -कौशिश की थी
गर्व से उसका माथा -
तना था - और
उस दिन - मेरा उससे
पहला नाता बना था .
खेल -खिलौनों से खेलते
माया लोक की पौथी
बांचते - मेरे देखते देखते
उसके चेहरे की झुर्रियां
कब दुनिया के मानचित्र में
बदल गयी - मैं नहीं जान पाया .
आज दंतहीन - केशहीन
कृषकाय - इस आदमी में
मैं अपने उस पिता को -
ढूँढता हूँ - जो अब भी
मुझे - तृप्त निगाहों से
पूछता सा लगता है -
बबुआ - कोई और
खिलौना तो नहीं चाहिए .
(पितृ दिवस - पर सादर अपने पिता को समर्पित)
लगाने में - झूमता खुश होता .
गले लगाता -मेरे साथ
खेलता -मेरे जागने से
पहले - राम जाने
कब सोता .
बड़े जतन प्रयत्न से
मेरी हर सही गलत
मांगों को - जाने कैसे कैसे
पूरा करता -
मुझे -खिलाता और
खुद - अधपेट सोता .
अनपढ़ - गंवार
जाहिल सा - इंसान
वो कोई गुरु नहीं था -
पर पुरे जहाँ - में उससे
ज्यादा ज्ञानी - मेरी
जानकारी में - तब
कोई दूसरा नहीं था.
वो था - मेरी दुनिया की
पहली पाठशाला .
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का
पहला शब्द - बाबा
सिखाने में - कितनी
मेहनत -कौशिश की थी
गर्व से उसका माथा -
तना था - और
उस दिन - मेरा उससे
पहला नाता बना था .
खेल -खिलौनों से खेलते
माया लोक की पौथी
बांचते - मेरे देखते देखते
उसके चेहरे की झुर्रियां
कब दुनिया के मानचित्र में
बदल गयी - मैं नहीं जान पाया .
आज दंतहीन - केशहीन
कृषकाय - इस आदमी में
मैं अपने उस पिता को -
ढूँढता हूँ - जो अब भी
मुझे - तृप्त निगाहों से
पूछता सा लगता है -
बबुआ - कोई और
खिलौना तो नहीं चाहिए .
(पितृ दिवस - पर सादर अपने पिता को समर्पित)
बेहतरीन शर्मा साहब...आपके पिता के श्री चरणों में समर्पित कविता हर शब्द में उन्हे कोटि-कोटि प्रणाम करती है...इस अवसर पर मेरे अग्रज श्री राजकुमार सोनी जी की लिखी कविता भी आपको समर्पित करना चाहता हूं.....
ReplyDeleteपिता को याद करते हुए
न जाने कितनी चीजें आ जाती है याद
सबसे पहले तो याद आई वह साइकिल
जिसकी सीट बहुत लंबी थी
जब कभी मौका लगता
हरकुलिस की
शानदार और जानदार सवारी पर
लंगी मारते हुए
निकल पड़ता था अपने दोस्तों से मिलने
पिता ने जब खरीदी हीरो मैजस्टिक
तब भी उसके साथ यही व्यवहार रहा मेरा
और... उबड़-खाबड़ रास्तों पर
जिन्दगी भर साथ निभाने का
दावा करते हुए जब राजदूत को घर में लाया गया
तब हर दूसरे दिन अपने आपको
शशिकपूर समझकर
मैं गाने लगता था-
एक रास्ता है जिन्दगी
जो थम गए तो कुछ नहीं
साइकिल.. मैजस्टिक और राजदूत की खरीदी के
कुछ सालों बाद ही एक रोज
पिता अचानक चले गए.
अस्थियों की राख
जब हमसे दूर जा रही थी
तभी एक भाई ने
पिता को बहुत कोसा
कुछ बनाकर नहीं गए...
कुछ छोड़कर नहीं गए
एक मकान है किसके नाम होगा
राजदूत को चाटेंगे... साली डिमांड खत्म हो गई है
बंटवारे में कुछ नहीं चाहता था मैं
फिर भी मेरे हिस्से आ गया एक जंग लगा संदूक
पिता का यह संदूक
बहुत कीमती था
इसमें रखी थी उनकी पुरानी घड़ी
एक छात्ता
एक कंबल
रेडियो बनाने वाली किताब
कुछ दवाईयां
कीड़ों को भगाने वाली कस्तूरी
अलबेला, अनमोल रतन और उड़न खटोला के
बड़े तवे वाले रिकार्ड.
और हां... संदूक में थी एक
छोटी सी तलवार भी.
वही तलवार जिसे शायद कुछ मंत्रों के साथ पिता ने
अपने शरीर पर हल्दी लगने के दौरान
सात वचन देने से पहले
किया था धारण.
बस यही छोटी सी तलवार ही
मेरी ताकत है अब तक
जब कभी घिर जाता हूं परेशानियों में
पिता की पुरानी तलवार से
काट डालता हूं मुसीबतें.
राजकुमार सोनी
दो लाइन इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत हैं ...
Deleteवो मेरी सलामती की दुआ - करता है
मैं उसकी छत्रछाया की चाह में जीता हूँ .
दुनिया में केवल एक ही शक्श है -
जिससे - मैं छिपकर
आज भी सिगरेट पीता हूँ .
अत्यंत सुंदर भाव्याभिव्यक्ति ....राजकुमार सोनीजी
ReplyDeleteको नमन ....!!