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Monday, April 11, 2011

सारे सपने तुम्हे समर्पित

सारे सपने तुम्हे समर्पित
तुम मेरी आस्थाओं के
वो अंतिम कलश हो .
जहाँ पहुँच कर -
साँसे टूटने लगती है -
आशाओं की.

ये देह तन - सम्पूर्ण मन
तुम्हे समर्पित -
सांसों के उद्वेग कह रहे हैं -
तुम गए नहीं कहीं
बिलकुल मेरे पास -
हो यहीं कही .

उम्र के वे सारे पड़ाव
तुम्हे समर्पित
जो मैंने जिए नहीं -
केवल गुजरा भर हूँ -
वक्त की आंधियों ने
मोहलत ही नहीं दी
के मुड कर देखूं .
क्या मिला क्या छूटा-
कौन मना कौन-
ना जाने कब रूठा .

तुम्हे देख सकता हूँ -
महसूस कर सकता हूँ
पर- छू नहीं सकता हूँ -
क्योंकि मैं शरीर नहीं हूँ -
पञ्च तत्व का ,
केवल भाव शरीर हूँ -बस .

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