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Saturday, April 9, 2011

मैं एक बीज था

मैं एक बीज था - पिता के हाथसे
छिटक कर वसुंधरा की -
गोद में आ गिरा-और उसने
मुझे ममता के आंचल में- सहेज लिया .

निर्बल - कमजोर अस्तित्वहीन सा
माता-पिता की गोद में -यात्रा की .
कभी गोद- कभी कांधे पर -
चढ़ते उतरते- घुटनों के बल
रेंगते हुवे -पिता की ऊँगली पकड़
लड़खड़ाते हुए - खड़ा हुआ.

पिता - की लायी तिपहिया-
साईकिल से आंगन में -
घूमता - हँसता ,खिलखिलाता .
पर जल्दी ही -मेरी कल्पनाओं में
पंख उगने लगे -और
घर का आंगन छोटा पड़ने लगा.

पिता से विनती की -
दुनिया को देखने की .
पिता ने सुंदर नयी सी कार ला दी.
अब मैं था और - सामने था
बाहें फैलाये सारा संसार.

घर से चला - माता की ममता
छूटी - पिता के अनुशासन से -दूर
चल पड़ा -देखने नया संसार
कहीं रूकता - किसी से
मिलता - किसी को साथ लेता
किसी के साथ चलता .

याद आने लगा था -पिता को दिया
वचन- रात से पहले घर वापिस
आने का - पर बहूत दूर
चला आया था - जाने कितनो का
अपना बन गया था - कितनो ने
अपना बनाया था .

जर्जर हो चली थी कार - और
उर्जाहीन -चलने को नहीं थी
तैयार - शाम ढलने लगी थी.
वापिस लौटना था मुझे - अपने
पिता के पास- अपने घर .

दौड़ पड़ा था - पैदल ही
पर थकने लगे थे पाँव .
टूटने लगी थी उम्मीदें ,
मैंने वहीँ से - पिता को पुकारा
हे पिता - मैं कैसे आऊँ ,
बिना किसी आधार के - कार के .

पिता खुद -पैदल चल के
मेरे पास आया - अपने हाथ
में उठाया -और
अपने साथ मुझे घर ले आया.
अब मैं फिर से एक बीज था .

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