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Wednesday, September 21, 2011

वो जो महकी

वो जो महकी - की रात की रानी
शर्माती सी रही रात भर.
हरारते शरारतें -या
फिर दोनों - अब कैसे
कहें - हुई मुद्दत के -अब
कुछ भी याद नहीं .

पुरानी याद के - वे पीले पात
अब भी रह रह कर चटखते हैं .
वो एक सैलाब - समन्दर सा
ढलक जाता है - एक कतरा सा 
बन इन आँखों में - अब भी
मालूम नहीं जाने - क्यों
कैसे कहें  - कहाँ से चला आता है .

ये रूह - ये जिस्म अब जर्जर हो चला 
कुछ कहीं था - ना जाने कहाँ खो चला .
भटकती सी रहती है - उन
गुजरे हुए लम्हों में जिन्दगी .
अब मैं हूँ - और बस मेरी तन्हाई है .

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