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Monday, July 4, 2011

मैं कहीं हूँ भी की नहीं हूँ

कभी कभी सोचता हूँ
मैं कहीं हूँ भी की नहीं हूँ
जाने ऐसे विचार मन में क्यों आते हैं .
या फिर समय के साथ
धीरे धीरे यूं ही बन जाते हैं .

क्रिया शून्य होना या
समय की धार से दूर हो जाना -
या शायद दोनों .
क्यों भोथरी हो जाती है
तलवार की धार
या विचार - या दोनों
ठीक से कह नहीं सकता -
क्या ठीक है- क्यों की
मैं हूँ भी और नहीं भी .

चलो फिर से सोचते हैं आखिर भूल
कहाँ हुई -क्यों हम हाशिये से भी और
नीचे आ गए .ये मैं नहीं कहता
बस यूं ही चलते फिरते लोग हम से
कह गए  या समझा गए .
और अब तो मैंने भी मान लिया -
की इस मामले में हम सचमुच -
गच्चा खा गए .

क्या कर्तव्य से विलग हो कर -
कर्महीन होकर रहना चाहिए - किसी से
कुछ नहीं कहना चाहिए बस
चुप चुप रहना चाहिए .

मान लेनी चाहिए अपने हार
छोड़ देना चाहिए ये घर -
ये संसार .या चला जाना चाहिए
उस पार - या यूं कहें समय के
अंतिम द्वार के भी उस पार 

जहाँ शेष नहीं रह जाती - वासनाएं
जब शरीर ही नहीं तो वासनाएं कहाँ
रहेंगी - तुम्हारा क्या बिगाड़ेगी तुमसे
क्या कहेंगी .

पर कहते हैं मन जीवित रहता है
शरीर के भी बाद
शायद मन-आत्मा एक ही होतें होंगे .

जब तक मन जीवित है तब तक
मेरे होने का अहसास दिलाता रहेगा
मेरे होने का सन्देश कहीं  से भी सही
आता रहेगा .

चलो कोई माने न माने पर
मैं हूँ जरूर  -
कहाँ हूँ  ये अभी ढूँढना पड़ेगा

तुम्हे कहीं मिल जाऊं मैं यूं ही आते जाते
तो ऐ दोस्त  मुझे
तुरंत खबर करना
मुझे इन्तजार रहेगा .

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