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Monday, July 4, 2011

ये बरगद का पेड़

ये बरगद का पेड़ -
कल तक ऐसा नहीं था -
आज और कल के बीच -
का मौसम इसे सुखा गया
शायद - समय इसे समूचा ही खा गया .

जाने मै क्या कह रहा था -
क्या बतला गया - सचमुच
उम्र को समझने में मैं -
धोखा खा गया .

कल के- नदी से निकले पत्थर
गोल -तराशे हुए से ,
बरसों  पुरानी ये सिला-
आज भी उतनी ही अनगढ़
अपने अपने मुकद्दर हैं- यार

हाँ तो बात बरगद की -
ठूंठ हो गया - मेरे साथ  साथ
इसने भी कलेवर बदल डाले
कल के पेंट कोट -अब बस
लुंगी के हवाले .

पर इसमें अजीब क्या है -
यही होता आया है -
और यही हुआ है - मैं कोई विशेष
तो हूँ नहीं की -नियम मेरे
हिसाब से घड़े जायेंगे -
संसद में मेरे लिए तो नए विधेयक
नहीं लाये जायेंगे .

चल चुप कर - बहुत हो चुकी
सुबह की सैर - नाटक मत कर
चाय सुड़क और नाश्ता कर के
सो जा -खाना बन जायेगा
तो जगा लेंगे -नहीं उठा तो -
तेरे बिना भी  खा लेंगे .

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