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Monday, July 4, 2011

फिर कविता ही क्यों .

अंतर में छिपे -जहर को
मैं क्यों दवा की मानिंद
कविता में उडेलता हूँ -
हँसते मुस्कुराते चेहरों को
क्यों कठोरता के आवरण
में धकेलता हूँ .

आखिर कविता - करता ही क्यों हूँ
किसलिए -किसके लिए -
मेरे सिवा इन्हें पढ़ेगा ही कोंन
कोई पढ़े भी तो क्यों -
आखिर क्या है इसमें
रंजन तो है -मनोरंजन नहीं है .

अपने को व्यक्त करने के
अनकहे को कहने के -
और भी तो ढंग तरीके हैं-
सहने के -
अकेले रहने के
और भी तो कारण हैं -
फिर कविता ही क्यों .

विष वमन को -अंतर तक
चीर देने वाले  चाकू -तीर को
कविता का नाम - क्यों देते तो यार !
सब बेकार -तेरा ये मन्त्र
ज़माने पर नहीं चलेगा यार .

अपने चिंता परेशानियों को
अंतर में रख -किसी से मत
कह यार - सब जायेगा  बेकार
फिर क्या फायदा -चाहे कविता हो
या मर्सिया -दोनों एक से लगते हैं यार !.

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