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Friday, December 30, 2011

क्षणिकाएं

बहूत खूब जिये - वो गुजरे पल
चलता रहता है - ये आज और कल
समय के साथ साथ - उम्र भर चल .
फिर क्या फर्क है - वो आज हो या कल .


आने वाले का जश्न बाद में -
पहले मेरे अनुत्तरित -
प्रश्नों के तो उत्तर दो .
नवागंतुक का स्वागत बाद में -
पहले मुझे तो चलता करो .

वर्ना याद रखना - मैं अपने
गुजर जाने का शौक
नहीं मनाऊंगा - आने वाले के
काँधे पर चढ़ कर फिर चला आऊँगा .
 चलो डूबने वाले पत्थरों से - ही पुल बनाये
तब तो मुमकिन है - समन्दर से
शायद जीत जाए .
मत कहो - सबका काम
यूँ ही तमाम होता है .
मरने वालों/ डूबने वालों का भी
तो इतिहास में नाम होता है .
यह अंतिम - सुबह शाम
इस निरे बुद्धू - वर्ष के नाम
फिर ना कहना - फिर कोई बताएगा नहीं
गया ये वर्ष तो फिर - लौट के आएगा नहीं .
फेंक दो पत्थरों को पानी में
कुछ तो द्विस्ट हो कहानी में .

तेरे मेरे बीच बहती ये नदी -
चुप नहीं - बहूत कुछ कहती है.
किनारे दूर दूर है लेकिन - इन्ही
के बीच कहीं छुप के वफ़ा रहती है .
आवाज़ में असर हो तो - दुआ कबूल होती है जरुर
वर्ना घुट के रह जाती है - चीख भी नक्कार खाने में .
किसी को क्या बदलने चला है तू - अब छोड़ यार
उम्र लगती है असर होने में - बांसों पे फूल आने में .
तेरे जज्बात को समझता हूँ - मैं
पर अभी छोटा है  - तू बड़ा हो जा.
सफ़र लम्बा है - रास्ते मुश्किल 
घुटनों के बल रेंगने को छोड - अपने
पैरों पे पहले  खड़ा हो जा . 
मीर मेरा पडोसी था -
मोहल्ला मीरासियों का था .
घर कान्हा का - वृन्दावन
दबदबा देवदासियों का था.
 
 
 
 
 
 

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