
सारी रात ग़मगीन सा -
मौन हो टहलता है .
ना जाने मेरी तरह से
इसका भी दिल -
क्यों नहीं बहलता है .
ये नदी दिन रात -
सतत यूँ ही बहती है -
अपनी ही मस्ती में -
ना जाने कैसे बेफिक्र सी
मस्त रहती है .
जुबान नहीं है फिर भी
कुछ तो कहती है .
ये मेरा क्षीण स्वर ही सही
तुम तक जाके -
लौट आता तो है .
ये बंसी की मधुर धुनपर -
कोई सारी सारी रात
कुछ गाता तो है .
बहूत उमस है आज
कही दूर लगता है -
बरसा होगा सजल मेघ -
अब हर रोज मेरी -
छतके चक्कर लगाता तो है .
फुर्सत के कुछ लम्हे--
ReplyDeleteरविवार चर्चा-मंच पर |
अपनी उत्कृष्ट प्रस्तुति के साथ,
आइये करिए यह सफ़र ||
चर्चा मंच - 662
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