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Friday, February 25, 2011

muktak

वो शक्श कौन था जो-
भर दुपहरी में-
अँधेरा ओढ कर आया -
और चुपके से -
रौशनी बाँटता चला गया .

यूँ ही हम देखते से रहते हैं -
सुबह का शाम से मिला करना .
सूखे पत्तों का झरझरा करके -
शाख से टूट कर गिरा करना .
फिर कोई जख्म देगया शायद -
क्या किसीसे 'अमन' गिला करना .
सिलसिला ये भी टूट जाएगा -
बस जरा देख कर चला करना .

रूठ जाना तो कोई बात नहीं -
रूठके मन भी जाना चाहिए.
दिल जो लगता नहीं कहीं यारो -
किसी से दिल लगाना चाहिए .

कितना मुख़्तसर सा था सफ़र अपना ,
ना कोई घर - ना कोई घर का सपना .

वो जो साथ साथ थे , मंजिल की खोज में
क्या हुआ है उन्हें , क्यों उदास बैठे हैं .

लौट जाते हैं -
थक कर लोग .
जब दरवाजे की
कुंडिया खडका कर .
गिर जाती है
उम्मीद की दीवार
जैसे भरभरा कर .

मैं भी हारा नहीं और जीता भी नहीं कोई
युहीं आपस में लड़ते रहे हम तमाम उम्र .

उम्र भर ढूँढता रहा जिसको - जो मेरा कभी था ही नहीं
कमबख्त, ये किसी दूसरे की आंख का सपना तो नहीं.

फिर कोई फूल मुस्कुरा के खिलखिलाया,
अपना बीता हुआ बचपन बहूत याद आया.











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