निष्ठुर ही सही कवि हूँ यार -
इस कदर पत्थर तो मत मार.
बसंत कब मेरे आंगन में -
चुपके से चला आया ,
किसी ने नहीं देखा -
किसी ने नहीं बताया .
पर दरखतों से गिरते-
सूखे पात ,हर पल ये कह रहें हैं
बसंत के जाने का संताप-
हम ही तो सह रहें हैं .
इस कदर पत्थर तो मत मार.
बसंत कब मेरे आंगन में -
चुपके से चला आया ,
किसी ने नहीं देखा -
किसी ने नहीं बताया .
पर दरखतों से गिरते-
सूखे पात ,हर पल ये कह रहें हैं
बसंत के जाने का संताप-
हम ही तो सह रहें हैं .
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