तू बरखा की बूंद - मैं सागर का पानी
झुके आसमां सी - वो अल्हड जवानी ना कोई कथा - ना थी कोई कहानी
जहाँ था मिलन - ना थी कोई रवानी .
वो हिम पर्वतों से चली मस्त ऐसे
किसी परिंदे को मिले पंख जैसे -
बढ़ी वेग से - बात कोई ना मानी
कहीं ना रुकी - मिलने सागर से ठानी .
शहर गाँव - छोड़े , वो तटबंध तोड़े
वो बहती चली - मिले राहों में रोड़े .
थी कोई कशिश - खींचती थी उसे वो
ना रुकना गवारा - चली वेग से वो .
प्रणय था पर अभिसारिका वो नहीं थी
मिलन के जतन में वो बढती चली थी
रुकी ना झुकी वो तो उन्मान्दिनी थी
पवन वेग सी , कभी गज गामिनी थी .
मिलन कैसा था वो - मैं अब क्या बताऊँ
सिमट कर नहीं - लट बिखरती चली थी.
वो प्रियतम से अपने लिपटती चली थी .
वो मां गंगा नहीं एक अल्हड नदी थी .
बहुत खूब! नदी की तरह प्रवाहमयी बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
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