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Wednesday, February 8, 2012

जीना कोई जुर्म तो नहीं

जीना कोई जुर्म तो नहीं था -लेकिन
सारी उम्र कटी - गुनाहगारों की तरह .

हाथ दोनों में उनके - खंजर तीर थे
हम छिपे बैठे - थे शिकारों की तरह .

घरों के ख्वाब सजे थे -बाज़ारों में
वे शौक से निकले खरीदारों के तरह .

जो टूटे ख्वाबे- अदम में   - तो जाना
नींद भी आई - पर रिश्तेदारों की तरह .

अभी मेरी किसी भी बात पर हैरान ना हो
जुते हैं बैल से - हम आज बेगारों की तरह .

कैसे आवाज़ दूं जो उनतक पहुंचे -यारो 
घर बने हैं उनके ऊँची मीनारों की तरह .

जिन्दगी काश तुने हमसे पुछा तो होता
क्यों मिली हमको - यूँ बीमारों के तरह .
 

1 comment:

  1. वा दादा श्री बहुत खूब ..आप की रचना का कोई मुकाबला नहीं ...में जो कुछ कह रहा वो दिल से कह रहा हु ....
    आप की ये रचना बहुत ही सुन्दर है ...

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